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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ४६७ ४६८-४९९
टीका - नारकी सर्व कृष्ण वर्ण ही है । बहुरि कल्पवासी देव जैसी उनके भावलेश्या है, तैसा ही वर्ण के धारक है । बहुरि भवनवासी, व्यतर, ज्योतिपी देव अर मनुष्य अर तिर्यंच अर देवनि का विक्रिया तै भया शरीर, ते छहौ वर्ण के धारक है । बहुरि उत्तम, मध्यम, जघन्य भोगभूमि सबंधी मनुष्य, तियंच, अनुक्रम ते सूर्य सारिखे अर चद्रमा सारिखे अर हरित वर्ण के धारक है ।
बादराऊतेऊ, सुक्का - तेऊ य वाऊकायाणं । गोमुत्तमुग्गवण्णा, कमसो श्रव्वत्तवण्णो य ॥४६७॥
बादराप्तैजसौ, शुक्लतेजसौ च वायुकायानाम् । गोमूत्रमुद्गवर्णाः क्रमशः श्रव्यक्तवश्च ॥ ४६७॥
टीका बादर अकायिक' शुक्ल वर्ण है । बादर तेज कायिक पीतवर्ण है । बादर वात कायिकनि विषै घनोदधि वात तो गऊ का मूत्र के समान वर्ण को धरै है | घनवात मूंगा सारिखा वर्ण धरै है । तनुवात का वर्ण प्रकट नाही, अव्यक्त वर्ण है ।
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सेसि सहमाणं, कावोदा सव्व विग्गहे सुक्का । सव्वो मिस्सो देहो, कवोदवण्णो हवे णियमा ॥४६८॥
सर्वेषां सूक्ष्मानां, कापोताः सर्वे विग्रहे शुक्ला: । सर्वो मिश्रो देहः, कपोतवरर्णो भवेन्नियमात् ॥ ४९८ ॥
टीका - सर्व ही सूक्ष्म जीवनि का शरीर कपोत वर्ग है । बहुरि सर्व जीव विग्रहगति विप शुक्ल वर्ण ही है । बहुरि सर्व जीव अपने पर्याप्ति के प्रारम्भ का प्रथम समय तै लगाय शरीर पर्याप्ति की पूर्णता पर्यत जो अपर्याप्त अवस्था है, तहां कपोत वर्ण ही है, जैसा नियम है । जैसे शरीरनि का वर्ण कह्या, सो जिसका जो शरीर का वर्ण होइ, तिसके सोई द्रव्य लेश्या जाननी । इति वर्णाधिकार : ।
आगे परिणामाधिकार पंच गाथानि करि क है है
लोगाणमसंखेज्जा, ऊदयट्ठाणा कसायगा होंति । तत्थ किलिट्टा सुहा, सुहाविसुद्धा तदालावा ॥४६६ ॥