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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भावाटीका ]
वष्णोदयेण जणिदो, सरीरवण्णो दू दव्वदो लेस्सा | सा सोढा किण्हादी, अणेयभेया सभेयेरण || ४६४ ॥
वर्णोदयेन जनितः, शरीरवर्णस्तु द्रव्यतो लेश्या । सा षोढा कृष्णादिः, अनेकदा स्वभेदेन ॥४६४॥
टीका - बहुरि वर्ण नामा नामकर्म के उदय ते भया जो शरीर का वर्ण, सो द्रव्य लेश्या कहिए । सो कृष्णादिक छह प्रकार है । तहा एक - एक भेद अपने - अपने भेदनि करि अनेकरूप जानने ।
सोई कहिए है
छप्पय - णील- कवोद- सुहेमंबुज - संखसण्णिहा वण्णे । संखेज्जासंखेज्जाणंतवियप्पा य पत्तेयं ॥ ४६५ ॥
षट्पदनीलकपोतसुहेमाम्बुजशखसन्निभा वर्णे । संख्येया संख्येयानन्त विकल्पाश्च प्रत्येकम् ||४९५ ॥
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टीका कृष्ण लेश्या षट्पद जो भ्रमर, ताके समान है । जिसके शरीर का भ्रमर समान काला वर्ण होइ, ताके द्रव्य लेश्या कृष्ण जानना । जैसे ही नील लेश्या, नीलमरिण समान है । कपोत लेश्या, कपोत समान है । तेजो लेश्या, सुवर्ण समान है । पद्म लेश्या, कमल समान है । शुक्ल लेश्या शख समान है । बहुरि इन ही एक - एक लेश्यानि के नेत्र इद्रिय के गोचर अपेक्षा सख्याते भेद है । जैसे कृष्णवर्ण हीन - अधिक रूप संख्याते भेद को लीए नेत्र इंद्रिय करि देखिये | बहुरि स्कध भेद करि एक- एक के असंख्यात असख्याते भेद है । जैसे द्रव्य कृष्ण लेश्यावाले शरीर सबधी स्कंध असख्याते है । बहुरि परमाणू भेद करि एक एक के अनन्त भेद है । जैसे द्रव्य कृष्ण लेश्यावाले शरीर सम्बन्धी स्वधनि विषै अनते परमाणू पाईए है । असे सर्व लेश्यानि के भेद जानना ।
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णिरया किण्हा कप्पा, भावाणुगया हू ति सुर-पर- तिरिये । उत्तरदेहे छक्क, भोगे रवि-चंद - हरिदंगा ||४६६ ॥
निरयाः कृष्णा कल्पा, भावानुगता हि त्रिसुरनरतिरश्चि । उत्तरदेहे षट्कं, भोगे रविचन्द्रहरितांगाः ॥४६६॥