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________________ ५७६ ] [ गोम्मटगार जीवकार गाया ४७४ टीका - जो जन्म ते तीस वर्प का भया होड । बहुरि सर्वदा खानपानादि से सुखी होइ; असा पुरुष दीक्षा कौं अगीकार करि पृथक्त्व वर्ग पर्यंत तीर्थकर के पाद मूल प्रत्याख्यान नामा नवमा पूर्व का पाठी होइ, सो परिहारविशुद्धि सयम को अगीकार करि, तीन सध्या काल विना सर्व काल विप दोय कोस विहार करें । पर रात्रि विर्षे विहार न करै । वर्षा काल विष किछ नियम नाही, गमन करै वा न करें; असा परिहारविशुद्धि संयमी हो है । परिहार कहिए प्राणीनि की हिसा का त्याग, ताकरि विशेपरूप जो शुद्धिः कहिए शुद्धता, जाविषै होइ, सो परिहारविशुद्धि सयम जानना । इस संयम का जघन्य काल तौ अतर्मुहर्त है, जाते कोई जीव अंतर्महर्तमात्र तिस संयम को धारि, अन्य गुणस्थान को प्राप्त होइ, तहां सो संयम रहै नाही; ताते जघन्य काल अंतर्मुहूर्त कह्या।। बहुरि उत्कृष्ट काल अडतीस वर्ष घाटि कोडि पूर्व है । जाते कोई जीव कोडि पूर्व का धारी तीस वर्ष का दीक्षा ग्रहि, आठ वर्ष पर्यत तीर्थकर के निकटि पढे, तहां पीछ परिहारविशुद्धि संयम को अंगीकार करै; तातै उत्कृष्टकाल अडतीस वर्प घाटि कोडि पूर्व कह्या । उक्तं च परिहारधिसमेतो जीवः षट्कायसंकुले विहरन् । पयसेव पद्मपत्रं, न लिप्यते पापनिवहेन ॥ याका अर्थ - परिहार विशुद्धि ऋद्धि करि सयुक्त जीव, छह कायरूप जीवनि का समूह विष विहार करता जल करि कमल पत्र की नाई पाप करि लिप्त न होइ । अणुलोहं वेदंतो, जीवो उवसामगो व खवगो बा। सो सुहमसंपराओ, जइखादेणूणो किचि ॥४७४॥ अणुलोभं विदन् जीवः उपशामको वा क्षपको वा । स सूक्ष्मसांपरायः यथाख्यातेनोनः किचित् ॥४७४॥ १ पट्खडागम - धवला पुस्तक १, पृष्ठ ३७५ गाथा स. १९०।
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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