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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ५७७ ___टीका - सूक्ष्मकृष्टि को प्राप्त भया लोभ कषाय का अनुभाग, ताके उदय कौं भोगवता उपशमी वा क्षायिकी जीव, सो सूक्ष्म है सापराय कहिए कषाय जाकै, असा सूक्ष्मसांपराय सयमी जानना । सो यहु यथाख्यात संयमी जे महामुनि, तिनित किछु एक घाटि जानना, स्तोकसा ही अंतर है ।
उवसंते खोणे वा, असुहे कम्मम्मि मोहणीयम्मि । छ्दुमट्ठो वा जिरणो वा, जहखादो संजदो सो दुः ॥४७॥
उपशांते क्षीणे वा अशुभे कर्मणि मोहनीये ।
छद्मस्थो वा जिनो वा, यथाख्यातः संयतः स तु ॥४७५॥ टीका - अशुभरूप मोहनीय नामा कर्म, सो उपशम होते वा क्षयरूप होते उपशांत कषाय गुणस्थानवर्ती वा क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती छद्मस्थ होइ अथवा सयोगी अयोगी जिन होइ; सोई यथाख्यात संयमी जानना । मोहनीय कर्म के सर्वथा उपशम ते वा नाशते जो यथावस्थित आत्मस्वभाव की अवस्था; सोई है लक्षण जाका, असा यथाख्यात चारित्र कहिए है।
पंच-तिहि-चउ-विहिं य, अणु-गुण-सिक्खा-वहिं संजुत्ता । उच्चंति देस-विरया सम्माइट्ठी झलिय-कम्मा२ ॥४७६॥
पंचत्रिचतुर्विधैश्च, अणुगुणशिक्षानतः संयुक्ताः।
उच्यते देशविरताः सम्यग्दृष्टयः झरितकर्माणः ॥४७६॥ टीका - पांच अणुव्रत, तीन गुणवत, च्यारि शिक्षानत असे बारह व्रतनि करि संयुक्त जे सम्यग्दृष्टी, कर्म निर्जरा के धारक, ते देश विरती सयमासयम के धारक परमागम विष कहिए है।
दसण-वय-सामाइय, पोसह-सच्चित्त-रायभत्ते य । बह्मारंभ-परिग्गह, अणुमणमुद्दिट्ठ-देसविरदेदे ॥४७७॥
दर्शनव्रतसामायिकाः प्रोषधसचित्तरात्रिभक्ताश्च । ब्रह्मारंभपरिग्रहानुमतोहिष्टदेशविरता एते ॥४७७॥
१. षट्खडागम-धवला पुस्तक १, पृष्ठ ३७५, गाथा स. १६१ । २ षट्खंडागम-धवला पुस्तक १, पृष्ठ ३७५, गाथा स १९२। ३. पट्खडागम-धवला पुस्तक १, पृष्ठ ३७५, गाथा स. १६३)