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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
मध्यमद्रव्यं क्षेत्रं कालं भावं च मध्यमं ज्ञानम् । जानातीति मन:पर्ययज्ञानं कथितं समासेन ॥ ४५९॥
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टीका ऋजुमति अर विपुलमति का जघन्य भेद अर उत्कृष्ट भेद तो जघन्य वा उत्कृष्ट द्रव्य के क्षेत्र, काल, भावनि को जाने है । अर जे जघन्य अर उत्कृष्ट के मध्यवर्ती जे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, तिनको ऋजुमति अर विपुलमति के जे मध्य भेद है, तै जाने है । से मन:पर्ययज्ञान संक्षेप करि कह्या है |
संपुरणं तु समग्गं, केवलमसवत्तसव्वभावगयं । लोयालोयवितिमिरं, केवल गाणं मुणेदव्वं ॥ ४६०॥
संपूर्ण तु समग्र, केवलमसंपन्नं सर्वभावगतम् । लोकालोकवितिमिरं, केवलज्ञानं मंतव्यम् ॥ ४६०॥
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टीका - जीव द्रव्य के शक्तिरूप जे सर्व ज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेद थे, ते सर्व व्यक्त रूप भए, ताते संपूर्ण है । बहुरि ज्ञानावरणीय अर वीर्यातराय नामा कर्म के सर्वथा नाशतें जिसकी शक्ति रुकै नाही है वा निश्चल है, ताते समग्र है । बहुरि इद्रियनि का सहाय करि रहित है, तातै केवल है । बहुरि प्रतिपक्षी च्यारि घाति कर्म के नाश त अनुक्रम रहित सकलं पदार्थनि विषै प्राप्त भया है, ताते असपन्न है । बहुरि लोकालोक विषै अज्ञान अधकार रहित प्रकाशमान है । अंसा प्रभेदरूप केवलज्ञान जानना ।
आगे ज्ञानमार्गणा विषै जीवनि की संख्या कहै है-
चदुगदिमंदिसुदबोहा, पल्लासंखेज्जया हु मणपज्जा । संज्जा केवलिणो, सिद्धादो होंति अदिरिता ॥ ४६१ ॥
चतुर्गतिमतिश्रुतबोधाः, पल्यासंख्येया हि मनः पर्यायाः । संख्येयाः केवलिनः, सिद्धात् भवंति अतिरिक्ताः ॥ ४६१ ॥
टीका - च्यार्यो गति विषै मतिज्ञानी पल्य के असख्यातवे भाग प्रमाण है । बहुरि श्रुतज्ञानी भी पल्य के असंख्यातवे भाग प्रमाण है । वहुरि मन पर्यय ज्ञानी मनुष्य संख्याते है । वहुरि केवल ज्ञानी सिद्धराशि विषै तेरह्वां चौदह्वा गुणस्थानवर्ती जीवनिका का परिमाण मिलाएं, जो होइ तीहि प्रमाण है ।