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________________ [ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ४५७-४५८-४५६ ५६८ ] टोका - नरलोक यहा जैसा वचन कह्या है, सो यहां मनुप्य लोक का विप्कंभ का जेता परिमाण है, सो लेना । पर मनुष्य लोक तौ गोल है । पर यह विपुलमति का विषयभूत क्षेत्र समचतुरस्र घन प्रतर कहिए, समान चौकोर धन रूप प्रतर क्षेत्र कहा है; सो पैतालीस लाख योजन लंबा, तितना ही चौड़ा जैसा परिमाण जानना । इहा ऊचाई थोडी है, तातै घन प्रतर कह्या है । जातै मानुपोत्तर पर्वत के वाह्य च्यारों कोणानि विष तिष्ठते देव, तिर्यच चितए हुवे तिनिको भी उत्कृष्ट विपुलमति मनःपर्ययज्ञान जाने है, असे क्षेत्र प्रति जघन्य - उत्कृष्ट भेद कहे । दुग-तिग-भवा हुँ अवर, संत्तट्ठभवा हवंति उक्कस्सं । अड-गवनवा हू अवरमसंखेज्जं विउलउपकस्सं ॥४५७॥ द्विक-त्रिक-भवा हि अवरं, सप्ताष्टभवा भवंति उत्कृष्टम् । अष्ट-नव-भवा हि अवरमसंख्येयं विपुलोत्कृष्टम् ॥४५७॥ टीका - काल करि ऋजुमति का विषय, जघन्यपनै अतीत - अनागत रूपं दोय, तीन भव है; उत्कृष्टतै सात, आठ भव है। बहुरि विपुलमति का विषय जघन्य आठ नव भव है; उत्कृष्ट पल्य का असख्यातवां भाग मात्र है । जैसे अतीत, अनागत अपेक्षा काल प्रति जघन्य उत्कृष्ट भेद कहे । आवलिमसंखभागं, अवरं च वरं च वरमसंखगुणं। तत्तो असंखगुणिदं, असंखलोगं तु विउलमदी ॥४५८॥ आवल्यसंख्यभागमवरं च वरं च वरमसंख्यगुणम् । ततोऽसंख्यातगुरिगतमसंख्यलोकं च विपुलमतिः ॥४५८॥ टीका - ऋजुमति का विषयभूत भाव जघन्यपने प्रावली के असंख्यातवे भाग प्रमाण है । उत्कृष्टपन भी आवली के असंख्यातवां भाग प्रमाण ही कहिए; तथापि जघन्य ते असख्यात गुणा है । बहुरि विपुलमति का विषयभूत भाव जघन्ये पनै ऋजुमति का उत्कृष्ट ते असंख्यात गुणा है । बहुरि उत्कृष्ट पनै असंख्यात लोक प्रमाण है । जैसे भाव प्रति जघन्य - उत्कृष्ट भेद कहे । मझिम दवं खेत्तं, कालं भावं च मज्झिमं गाणं । जाणदि इदि मणपज्जवणाणं कहिदं समासेण ॥४५६॥
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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