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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३६५-३६८ इला, पिंगला, सुष्मणा, इत्यादि स्वरोदय रूप बहुत प्रकार कारणरूप सासोस्वास का भेद; बहुरि दश प्राणनि कौं उपकारी वा अनुपकारी वस्तु गत्यादिक के अनुसारि वर्णन कीजिए है; सो जाके दोय लाख ते छह सै पचास कौं गुणिए, ऐसे तेरह कोडि (१३०००००००) पद हैं।
बहुरि क्रिया करि विशाल कहिए विस्तीर्ण, शोभायमान असा क्रियाविशाल नामा तेरह्वां पूर्व है । इसविणे संगीत, शास्त्र, छंद, अलंकारादि शास्त्र, बहत्तरि कला, चौसठि स्त्री का गुण शिल्प आदि चातुर्यता, गर्भाधान आदि चौरासी क्रिया, सम्यग्दर्शनादि एक से आठ क्रिया, देववंदना आदि पचीस क्रिया और नित्य नैमित्तिक क्रिया इत्यादिक प्ररूपिए है । याके दोय लाख ते च्यारि से पचास कौं गुणिए असे नव कोडि (६०००००००)पद है ।
बहुरि त्रिलोकनि का बिंदु कहिए अवयव अर सार सो प्ररूपिए है, याविष असा त्रिलोकबिदुसार नामा चौदह्वां पूर्व है । इसविर्ष तीन लोक का स्वरूप पर छब्बीस परिकर्म, आठ व्यवहार, च्यारि बीज इत्यादि गणित पर मोक्ष का स्वरूप, मोक्ष का कारणभूत क्रिया, मोक्ष का सुख इत्यादि वर्णन कीजिए है । याके दोय लाख तै छह सै पचीस कौं गुणिए, असे बारह कोडि पचास लाख (१२५००००००)पद हैं।
असे चौदह पूर्वनि के पदनि की संख्या हो है । इहां दोय लाख का गुणकार का विधान करि गाथा विर्षे संख्या कही थी; तातै टीका विषै भी तैसे ही कही है।
सामाइय चउवीसत्थयं, तदो वंदरणा पडिक्कमणं । वेणइयं किदियम्मं, दसवेयालं च उत्तरज्झयणं ॥३६७॥ कप्पववहार-कप्पाकप्पिय-महकप्पियं च पुंडरियं । महपुंडरीयणिसिहियमिदि चोद्दसमंगबाहिरयं ॥३६८॥
सामायिकं चतुर्विशस्तवं, ततो वंदना प्रतिक्रमणं । वनयिक कृतिकर्म, दशवकालिकं च उत्तराध्ययनं ॥३६७॥ कल्प्यव्यवहार - कल्प्याकल्प्य - महाकल्प्यं च पुडरीकं । महापुंडरीकं निषिद्धिका इति चतुर्दशांगबाह्य ॥३६८॥