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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[५०७ बहुरि सूत्रयति कहिये मिथ्यादर्शन के भेदनि को सूच, बतावै, ताकौं सूत्र कहिये । तिस विष जीव प्रबंधक ही है; अकर्ता है, निर्गुण है, अभोक्ता है। स्वप्रकाशक ही है, परप्रकाशक ही है; अस्तिरूप ही है; नास्तिरूप ही है इत्यादि क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद, विनयवाद, तिनके तीन सै तरेसठि भेद, तिनिका पूर्व पक्षपने करि वर्णन करिये है।
बहुरि प्रथम कहिए मिथ्यादृष्टी अवती, विशेष ज्ञानरहित, ताकौ उपदेश देने निमित्त जो प्रवृत्त भया अधिकार - अनुयोग; कहिए सो प्रथमानुयोग कहिए । तिहि विष चौबीस तीर्थकर, बारह चक्रवर्ति, नव बलभद्र, नव नारायण, नव प्रतिनारायण इनि तरेसठि शलाका पुरुषनि का पुराण वर्णन कीया है ।
बहुरि पूर्वगत चौदह प्रकार, सो आगे विस्तार ने लीएं कहेगे ।
बहुरि चूलिका के पंच भेद जलगता, स्थलगता, मायागता, रूपगता, आकाशगता ए पंच भेद है।
तिनि विर्षे जलगता चूलिका तौ जल का स्तंभन करना, जल विष गमन करना, अग्नि का स्तभन करना, अग्नि का भक्षण करना, अग्नि विप प्रवेश करना इत्यादि क्रिया के कारण भूत मत्र, तत्र, तपश्चरणादि प्ररूप है । बहुरि स्थलगता चूलिका मेरुपर्वत, भूमि इत्यादि विष प्रवेश करना शीव्र गमन करना इत्यादिक क्रिया के कारणभूत मत्र तत्र तपश्चरणादिक प्ररूप है। बहुरि मायागता चूलिका मायामई इन्द्रजाल विक्रिया के कारण भूत मत्र, तंत्र, तपश्चरणादि प्ररूप है । बहुरि रूपगता चूलिका सिह, हाथी, घोड़ा, वृषभ, हरिण इत्यादि नाना प्रकार रूप पलटि करि धरना; ताके कारण मत्र, तत्र, तपश्चरणादि प्ररूप है। वा चित्राम, काठ, लेपादिक का लक्षण प्ररूप है । वा धातु रसायन को प्ररूप है । बहुरि आकाशगता चूलिका - आकाश विषै गमन आदि कौं कारण भूत मत्र, तंत्रादि प्ररूप है । असे चूलिका के पाच भेद जानने ।
ए चंद्रप्रज्ञप्ति आदि देकर भेद कहे । तिनिके पदनि का प्रमाण आगे कहिए है, सो हे भव्य तू जानि ।
गतनम मनगं गोरम, मरगत जवगात नोननं जजलक्खा। मननन धममननोनननामं रनधजधरानन जलादी ॥३६३॥