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[प्रथमद्दष्टि प्रकरण
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खंडनि की समानता असमानता इत्यादि अनेक कथन है । वहुरि प्रनुभागबंध को कारण जे अनुभागाध्यवसायस्थान तिनका वर्णन विपे तिन सर्वनि का प्रमाण कहि, स्थिति, तहां एक-एक स्थितिभेद संबंधी स्थितिवंधाध्यवसाय स्थाननि विषे द्रव्य, गुणहानि आदि का प्रमारणादिक कहि एक-एक स्थितिबंधाध्यवसायस्थान जे निपेक तिन विषै जेते - जेते अनुभागाध्यवसायस्थान पाइए तिनका वर्णन है । वहुरि मूलग्रंथकर्त्ताकरि कीया हुवा ग्रंथ की संपूर्णता होने विपं ग्रथ के हेतु का, चामुंडराय राजा को आशीर्वाद का, ताकरि बनाया चैत्यालय वा जिनविव का, वीरमार्तड राजा कौं आशीर्वाद का वर्णन है । बहुरि संस्कृत टीकाकार अपने गुरुनि का वा ग्रंथ होने के समाचार कहे है तिनका वर्णन है ।
श्रीमद् गोम्मटसार द्वितीय नाम पंचसंग्रह मूलशास्त्र, ताकी जीवतत्त्वप्रदीपिका नामा संस्कृतटीका के अनुसार इस भाषाटीका विषे अर्थ का वर्णन होसी arat सूचनका कही ।
अर्थसंदृष्टि सम्बन्धी प्रकररण
बहुरि तहां जे संदृष्टि है, तिनका अर्थ, वा कहे श्रर्थ तिनकी संदृष्टि जानने की इस भापाटीका विषै जुदा ही संदृष्टि अधिकार विषै वर्णन होसी ।
इहां कोऊ कहै - अर्थ का स्वरूप जान्या चाहिए, संदृष्टिनि के जाने कहा सिद्धि हो है ?
ताका समाधान - संदृष्टि जाने पूर्वाचार्यनि की परंपरा ते चव्या आया जो संकेतरूप अभिप्राय, ताको जानिए है । अर थोरे मे वहुत अर्थ को नीकै पहिचानिए है । घर मूलशास्त्र वा संस्कृतटीका विषै वा अन्य विपै, जहां संदृष्टिरूप व्याख्यान है, तहां प्रवेश पाइये है । अर अलौकिक गणित के लिखने का विधान आदि चमत्कार भासे है । घर संदृष्टिनि को देखते ही ग्रथ की गंभीरता प्रगट हो है - इत्यादि प्रयोजन जानि संदृष्टि अविकार करने का विचार कीया है ।
ग्रंथनि
तहां केई संदृष्टि ग्राकाररूप है, केई अंकरूप है, केई अक्षररूप है, केई निगने हो का विशेषल्प है, सो तिस अविकार विषै पहिले तो सामान्यपने संदृष्टिनि वगन है, वहा पदार्थनि के नाम ते, संख्या ते अर अक्षरनि ते अंकनि की अर प्रभूति श्रादि की संदृष्टिनि का वर्णन है ।