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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
[ ४७६ टीका - याप्रकार अनक्षरात्मक जो पर्यायसमास ज्ञान के भेद, तिनि विष षट्स्थान (पतित)वृद्धि असंख्यातलोकमात्र बिरियां हो है । सो ही कहिए है - जो एक अधिक सूच्यंगुल का असंख्यातवाँ भाग का वर्ग करि तिस ही के धन को गुणें, जो प्रमाण होइ, तितने भेदनि विर्ष एक बार षट्स्थान होइ, तौ असख्यात लोक प्रमाण पर्यायसमास ज्ञान के भेदनि विष केती बार षट्स्थान होइ; जैसै त्रैराशिक करना । तहां प्रमाणराशि एक अधिक सूच्यंगुल के असंख्यातवां भाग का वर्ग करि गुणित, ताहीका घनप्रमाण अर फलराशि एक, इच्छाराशि असख्यात लोक पर्यायसमास के स्थानमात्र, तहां फल करि इच्छा को गुणि, प्रमाण का भाग दीएं, जेता लब्धराशि का प्रमाण आवै, तितनी बार सर्व भेदनि विष षट्स्थान पतित वृद्धि हो है । सो भी असंख्यात लोक मात्र हो है । जाते असंख्यात के भेद घने है । ताते हीनाधिक होते भी असंख्यात लोक ही कहिए । याप्रकार असंख्यात लोक मात्र षट्स्थान वृद्धि करि वर्धमान जघन्य ज्ञान ते अनंत भागवृद्धि लीएं प्रथम स्थान तै लगाइ, अंत का षट्स्थान विष अंत का अनंत भागवृद्धि लीएं, स्थान पर्यत जेते ज्ञान के भेद, ते ते सर्व पर्यायसमास ज्ञान के भेद जानने ।
अब इहांते प्रागै अक्षरात्मक श्रुतज्ञान को कहै है - चरिमुव्वंकणवहिदअत्थक्खरगुरिणदचरिममुन्वंकं । अत्थक्खरं तु गाणं, होदि त्ति जिणेहि णिद्दिळं ॥३३३॥
चरमोर्वकेरणावहितार्थाक्षरगुरिणतचरमोर्वकम् ।
अर्थाक्षरं तु ज्ञानं भवतीति जिननिर्दिष्टम् ॥३३३॥ टीका - पर्याय समास ज्ञान विर्षे असंख्यात लोक मात्र षट्स्थान कहे । तिनिविषे वृद्धि को कारण सख्यात, असख्यात, अनत ते अवस्थित है, नियमरूप प्रमाण धरै है। संख्यात का प्रमाण उत्कृष्ट सख्यात मात्र, असंख्यात का असंख्यात लोक मात्र, अनंत का प्रमाण जीवराशि मात्र जानना । बहुरि अंत का षट्स्थान विष अंत का उर्वक जो अनंतभागवृद्धि, ताकौ लीएं पर्याय समास ज्ञान का सर्वोत्कृप्ट भेद, तातै आगै अष्टांक कहिए, अनत गुणवृद्धि संयुक्त जो ज्ञान का स्थान, सो अक्षर श्रुतज्ञान है । पूर्व अष्टांक का प्रमाण नियमरूप जीवराशि मात्र गुणा था, इहां अष्टांक का
१. षट्खडागम - घवला पुस्तक ६, पृष्ठ २२ की दीका ।