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| गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३३२
का गुणकार था, तिस विषै प्रक्षेपक प्रक्षेपक संबंधी ऋण संख्यात गुणा घाटि है । ताकौ घटावने के अर्थ बहुरि किचित् ऊन कीएं, जो साधिक जघन्य कौं दोय बार किचिदून तेरह का गुणकार अर छह हजार का भागहार भया । सो इतना प्रमाण पूर्वोक्त दूणां लब्ध्यक्षर विषै जोडें, साधिक दूरगा हो है । औसे प्रथम तो संख्यात भा
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वृद्धि युक्त जे स्थान, तिनि विषै उत्कृष्ट संख्यात मात्र स्थाननि का सात दशवां भाग प्रमाण स्थान पशुलि वृद्धि पर्यंत भए लब्ध्यक्षर ज्ञान दूरगा हो है । बहुरि तिसही का इकतालीस छप्पनवां भाग प्रमाण स्थान प्रक्षेपक - प्रक्षेपक वृद्धि पर्यंत भएं, लब्ध्यक्षर ज्ञान दूरगा हो है । बहुरि आगे भी संख्यात ( भाग) वृद्धि का पहिला स्थान तें लगाइ उत्कृष्ट सख्यात मात्र स्थाननि का तीन चौथा भाग मात्र स्थान प्रक्षेपक - प्रक्षेपक वृद्धि पर्यत भएं, लब्ध्याक्षर ज्ञान दूर्गा हो है । बहुरि तैसें ही संख्यात वृद्धि का पहिला स्थान तै लगाइ, उत्कृष्ट संख्यातमात्र स्थान प्रक्षेपक वृद्धिपर्यंत भएं, लब्ध्यक्षरज्ञान दूरगा हो है ।
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प्रश्न
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जो साधिक जघन्य ज्ञान दूरगा भया सो साधिक जघन्य ज्ञान ती पर्यायसमास ज्ञान का मध्य भेद है, इहां लब्ध्यक्षर ज्ञान दूरगा कैसे कह्या है ?
ताकां समाधान - जो उपचार करि पर्यायसमास ज्ञान के भेद को भी लब्ध्यक्षर कहिए । जाते मुख्यपने लब्ध्यक्षर है नाम जाका, जैसा जो पर्याय ज्ञान, ताका समीपवर्ती है ।
भावार्थ - इहां ग्रैसा जो लब्ध्यक्षर नाम ते इहां पर्यायसमास का यथासभव मध्यभेद का ग्रहण करना । बहुरि चकार करि गत्वा कहिए असे स्थान प्रति प्राप्त होड, लब्ध्यक्षर ज्ञान दूणा हो है, सा अर्थ जानना ।
एवं असंखलोगा, अरणक्खरप्पे हवंति छट्ठारणा ।
ते पज्जायस मासा, श्रक्खरगं उवरि बोच्छामि ॥ ३३२ ॥ १
एवमसंख्यलोकाः, अनक्षरात्मके भवंति षट्स्थानानि । ते पर्यायसमासा अक्षरगमुपरि वक्ष्यामि ॥३३२॥
१६, पृ २२ की टीका ।