________________
[गोगटसार जीवका गाथा ३०१-३०२ ४३८ 1 देशघाती स्पर्धकनि का उदय जानना । बहुरि केवलज्ञान क्षायिक ही है, जाते केवलज्ञानावरण, वीर्यातराय का सर्वथा नाश करि केवलज्ञान प्रकट हो है । क्षय होते उपज्या वा क्षय है प्रयोजन जाका, ताकौं क्षायिक कहिए । यद्यपि सावरण अवस्था विष आत्मा के शक्तिरूप केवलज्ञान है, तथापि व्यक्तरूप प्रावरण के नाण करि ही है, तातै व्यक्तता की अपेक्षा केवलज्ञान क्षायिक कह्या; जाते व्यक्त भएं ही कार्य सिद्धि संभव है।
आगे मिथ्याज्ञान उपजने का कारण वा स्वरूप वा स्वामित्व वा भेद कहै है
अण्णाणतियं होदि हु, सण्णाणतियं खुमिच्छ अणउदये । णवरि विभागं पारणं, पंचिदियसण्णिपुण्रणेव ॥३०१॥ अज्ञानत्रिकं भवति खलु, सज्ज्ञानत्रिकं खलु मिथ्यात्वानोदये । नवरि विभंगं ज्ञानं, पंचेंद्रियसंज्ञिपूर्ण एव ॥३०१॥
टीका - जे सम्यग्दृष्टी के मति, श्रुति, अवधि ए तीन सम्यग्ज्ञान है; संजी पंचद्री पर्याप्त वा निर्वत्ति अपर्याप्त जीव के विशेष ग्रहणरूप जेयाकार सहित उपयोग रूप है लक्षण जिनिका अस है; तेई तीनों मिथ्यात्व वा अनंतानुबंधी कोई कषाय के उदय होते तत्त्वार्थ का अश्रद्धान रूप परिणया जीव के तीनों मिथ्याज्ञान हो है । कुमति, कुश्रुति, विभंग ए नाम हो है । रणवरि असा प्राकृत भाषा विष विशेष अर्थ को लीए अव्यय जानना । सो विशेष यहु-जो अवधि ज्ञान का विपर्ययरूप होना सोई विभग कहिए । सो विभंग अजान सैनी पंचेद्री पर्याप्त ही कै हो है । याही ते कुमति, कुश्रुति, एकेद्रिय आदि पर्याप्त अपर्याप्त सर्व मिथ्यादृष्टी जीवनि के अर सासादन गुणस्थानवर्ती सर्व जीवनि के संभव है ।
आगे सम्यग्दृष्टि नामा तीसरा गुणस्थान विषे ज्ञान का स्वरूप कहै है - मिस्सुदये सम्मिस्सं, अण्णाणतियेरण गाणतियमेव ।
संजमविसेससहिए, मणपज्जवरणाणमुद्दिळें ॥३०२॥ __ मिश्रोदये संमिश्र, प्रज्ञानत्रयेण ज्ञानत्रयमेव ।
संयमविशेषसहिते, मनःपर्ययज्ञानमुद्दिष्टम् ॥३०२॥