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________________ सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ] [ ४३७ का निराकरण वा स्याद्वाद मत के प्रमाण का स्थापन विशेषपने जैन के तर्कशास्त्र है, तिनि विषै विचारना । इहां श्रहेतुवादरूप आगम विषै हेतुवाद का अधिकार नाही । ताते सविशेष न कह्या । हेतु करि जहां अर्थ को दृढ कीजिए ताका नाम हेतुवाद है, सो न्यायशास्त्रनि विषे हेतुवाद है । इहां तो जिनागम अनुसारि वस्तु का स्वरूप कहने का अधिकार जानना । ज्ञान के भेद कहैं हैं - पंचेव होंति णाणा, मदि-सुद- श्रही मरणं च केवलयं । खयवसमिया चउरो, केवलणारणं हवे खइयं ॥ ३०० ॥ पंचैव भवंति ज्ञानानि, मतिश्रुतावधिमनश्च केवलम् । क्षायोपशमिकानि चत्वारि, केवलज्ञानं भवेत् क्षायिकम् ॥ ३००॥ टीका- 'मति, श्रुति, अवधि, मन:पर्यय, केवल ए सम्यग्ज्ञान पंच ही है; हीन अधिक नाहीं । यद्यपि संग्रहनयरूप द्रव्यार्थिक नय करि सामान्यपने ज्ञान एक ही है । तथापि पर्यायार्थिक नय करि विशेष कीएं पंच भेद ही हैं । तिनि विषै मति, श्रुति, अवधि, मन:पर्यय ए च्यारि ज्ञान क्षायोपशमिक हैं । जाते मतिज्ञानावरणादिक कर्म वा वीर्यान्तराय कर्म, ताके अनुभाग के जे सर्वघातिया स्पर्धक हैं; तिनिका उदय नाही, सोई क्षय जानना । बहुरि जे उदय अवस्था कौन प्राप्त भए, ते सत्तारूप तिष्ठे है, सोई उपशम जानना । उपशम वा क्षय करि उपजै, ताकी क्षयोपशम कहिए अथवा क्षयोपशम है प्रयोजन जिनिका, ते क्षायोपशमिक कहिए । यद्यपि क्षायोपशमिक विषं तिस प्रावरण के देशघातिया स्पर्धकनि का उदय पाइए है । तथापि वह तिस ज्ञान का घात करने कौ समर्थ नाही ; तातै ताकी मुख्यता न करी । याका उदाहरण कहिए है - अवधिज्ञानावरण कर्म सामान्यपर्ने देशघाती है । तथापि अनुभाग का विशेष कीएं, याके केई स्पर्धक सर्वघाती है; केई स्पर्धक देशघाती है । तहां जिनिकें अवधिज्ञान किछू भी नाहीं, तिनिकैं सर्वघाती स्पर्धकनि का उदय जानना । बहुरि जिनिके अवधिज्ञान पाइए है अर आवरण उदय पाइए है; तहां
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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