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________________ सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ] [ ४३६ टीका - मिश्र कहिए सम्यग्मिथ्यात्व नामा मोहनीय कर्म की प्रकृति, ताके उदय होते, तीनों अज्ञान करि मिल्या तीनों सम्यग्ज्ञान इहा हो है, जातै जुदा कीया जाता नाही, तातै सम्यग्मिथ्यामति, सम्यग्मिथ्याश्रुत, सम्यग्मिथ्या अवधि असे इहां नाम हो है। जैसे इहां एक काल विर्ष सम्यग्रूप वा मिथ्यारूप मिल्या हुवा श्रद्धान पाइए है । तैसे ही ज्ञानरूप वा अज्ञानरूप मिल्या हुवा ज्ञान पाइए है । इहा न तो केवल सम्यग्ज्ञान ही है, न केवल मिथ्याज्ञान है, मिथ्याज्ञान करि मिल्या सम्यग्ज्ञानरूप मिश्र जानने। बहुरि मन पर्यय ज्ञान विशेष सयम का धारक छठा गुणस्थान तै बारहवा गुणस्थान पर्यंत सात गुणस्थानवर्ती तप विशेष करि वृद्धिरूप विशुद्धताके धारी महामुनि, तिन ही के पाइए है; जाते अन्य देशसयतादि विर्षे तैसा तप का विशेष न संभव है। प्रागै मिथ्याज्ञान का विशेष लक्षण तीन गाथानि करि कहै है - विस-जंत-कूड-पंजर-बंधादिसु विणुवएस-करणेण । जा खलु पवद्दए मइ, मइ-अण्णाणं त्ति रणं बेति ॥३०३॥ विषयंत्रकूटपंजरबंधादिषु विनोपदेशकरणेन । या खलु प्रवर्तते मतिः, मत्यज्ञानमितीदं ब्रवंति ॥३०३।। टीका - परस्पर वस्तु का संयोग करि मारने की शक्ति जिस विष होइ असा तैल, कर्पूरादिक वस्तु, सो विष कहिए । बहुरि सिंह, व्याघ्रादि क्रूर जीवनि के धारन के अथि जाकै अभ्यतर छैला आदि रखिए । पर तिस विष तिस क्र र जीव को पाव धरते ही किवाड जुडि जाय, असा सूत्र की कल करि संयुक्त होइ, काष्ठादिक करि रच्या हुवा हो है, सो यन्त्र कहिए। बहुरि माछला, काछिवा, मूसा, कोल इत्यादिक जीवनि के पकडने के निमित्त काष्ठादिकमय बने, सो कूट कहिए । बहुरि तीतर, लवा, हिरण इत्यादि जीवनि के पकड़ने के निमित्त फद की लीए जो डोरि का जाल बनै, सो पीजर कहिए । १. पट्खडागम - धवला पुस्तक १, गाथा १७९, पृष्ठ ३६० ।
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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