SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 371
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ग्याहरवां अधिकार : कषाय-मार्गणा-प्ररूपणा ॥मंगलाचरण । पावन जाको श्रेयमग, मत जाको श्रियकार । आश्रय श्री श्रेयांस को, करहु श्रेय मम सार ।। आगे शास्त्रकर्ता आचार्य चौदह गाथानि करि कषाय मार्गणा का निरूपण करें है - सुहदुक्खसुबहुसस्सं, कम्मक्खेत्तं कसेदि जीवस्स । संसारदूरमेरं, तेण कसाओ त्ति णं बैंति ॥२८२॥ सुखदुःखसुबहुसस्य, कर्मक्षेनं कृषति जीवस्य । संसारदूरमर्याद, तेन कषाय इतीमं ब्रुवंति ॥२८२॥ टोका - जा कारण करि संसारी जीव के कर्म जो है ज्ञानावरणादिक मूल, उत्तर-उत्तरोत्तर प्रकृतिरूप शुभ-अशुभ कर्म, सोई भया क्षेत्र कहिए, अन्न उपजने का आधार भूत स्थान, ताहि कृषति कहिए हलादिक ते जैसे खेत कौं सवारिए, तैसै जो सवारे है, फल निपजावने योग्य करै है, तीहि कारण करि क्रोधादि जीव के परिणाम कषाय हैं, असा श्रीवर्धमान भट्टारक के गौतम गणधरादिक कहै है । तातै महाधवल द्वितीय नाम कषायप्राभृत आदि विष गणधर सूत्र के अनुसारि जैसे कषायनि का स्वरूप, संख्या, शक्ति, अवस्था, फल आदि कहे है । तैसे ही मैं कहोंगा। अपनी रुचिपूर्वक रचना न करोगा । जैसा आचार्य का अभिप्राय जानना । कैसा है कर्मक्षेत्र ? इंद्रियनि का विषय संबंध ते उत्पन्न भया हर्ष परिणामरूप नानाप्रकार सुख और शारीरिक, मानसिक पीडा रूप नाना प्रकार दुख सोई बहुसस्य कहिए वहुत प्रकार अन्न, सो जीहिं विष उपज्या है जैसा है। वहुरि कैसा है कर्मक्षेत्र ? अनादि अनंत पंच परावर्तन रूप संसार है, मर्यादा सीमा जाकी असा है। - १ पट्स डागम - धवला पुस्तक १, पृ १४३, गा स. ६०. यह जयधवल द्वितीय नाम कपायप्राभूत है।
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy