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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
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के पहिले समय तिस जीव को तहां योग्य जो उत्कृष्ट योग, ताकरि आहार ग्रहण कीया : बहुरि ताकौ योग्य जो उत्कृष्ट योग की वृद्धि, ताकरि वर्धमान भया, बहुरि सो जीव उत्कृष्ट योग स्थाननि को बहुत बार ग्रहण करें है; अर जघन्य योगस्थाननि को बहुत बार ग्रहण न करे है, तिस जीव को योग्य उत्कृष्ट १ योगस्थान, तिनिको बहुत बार प्राप्त होइ है; अर तिस जीव को योग्य जघन्य योगस्थान, तिनिको बहुत बार प्राप्त न हो है । बहुरि अधस्तन स्थितिनि के निषेक का जघन्य पद करें है । याका अर्थ यहु-जो ऊपरि के निषेक सबधी जे परमाणू, तिन थोरे परमाणूनि को अपकर्षरण करि, स्थिति घटाइ, नीचले निषेकनि विषे निक्षेपण करें है; मिलावे है । बहुरि उपरितन स्थिति के निषेकनि का उत्कृष्टपद करें है । याका अर्थ यहु-जो नीचले निषेकनि विषै तिष्ठते परमाणू, तिनि बहुत परमाणूनि का उत्कर्षरण करि, स्थिति को बधाई, ऊपरि के निषेकनि विषै निक्षेपण कर है; मिलाव है । बहुरि अंतर विषै गमनविकुवरणा को न करें है; अतर विषे नखच्छेद न करें है । याका अर्थ मेरे जानने में नीकै न आया है । ताते स्पष्ट नाही लिख्या है; बुद्धिमान जानियो । बहुरि तिस जीव के आयु विषे वचनयोग का काल स्तोक होइ, मनोयोग का काल स्तोक होइ । बहुरि वचनयोग स्तोक बार होइ । मनोयोग स्तोक बार होइ ।
भावार्थ - काययोग का प्रवर्तन बहुत बार होइ, बहुत काल होइ । से आयु का अंतर्मुहूर्त अवशेष रहै; आगे कर्मकाण्ड विषै योगयवमध्य रचना कहँगे । ताका ऊपरला भाग विषै जो योगस्थान पाइए है । तहां अंतर्मुहूर्तकाल पर्यत तिष्ठ्या पीछे आगे जो जीव यवमध्य रचना कहैगे; तहां अंत की गुरणहानि सबधी जो योगस्थान, तहां आवली का असंख्यातवां भागमात्र काल पर्यंत तिष्ठ्या | बहुरि आयु का द्विचरम समय विषे श्रर अंत समय विषे उत्कृष्ट योगस्थान को प्राप्त भया । तहां तिस जीव के तिन अत के दोऊ समयनि विषै श्रदारिक शरीर का उत्कृष्ट संचय हो है । बहुरि वैक्रियिक शरीर का भी वैसे ही कहना । विशेष इतना जो अंतर विषै नखच्छेद न करें है, यहु विशेषण न संभव है ।
वेगुब्वियवरसंचं, बावीससमुद्द आररणदुगम्हि ।
जह्मा वरजोगस्स य, वारा अण्णत्थ ण हि बहुगा ॥ २५७॥
१- अ, ख, ग इन तीन प्रति मे यहाँ अनुत्कृष्ट शब्द मिलता है ।