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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गापा २५८
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वैविकवरसंचयं, द्वाविंशतिसमुद्र श्रारणद्विके ।
यस्माद्वरयोगस्य च, वारा अन्यत्र नहि बहुकाः ॥२५७।। टोका - वै क्रियिक शरीर का उत्कृष्ट संचय, सो पारण-अच्युत दोय स्वर्गनि के ऊपरला पटल सबंधी बाईस सागर आयु संयुक्त देव, तिन विषै संभव है । अन्यत्र नीचले, ऊपरले पटलनि विर्ष वा सर्व नारकीनि विष न संभवें है; जाते आरणअच्युत बिना अन्यत्र वैक्रियिक शरीररूप योग का बहुत बार प्रवर्तन न हो है। चकार ते तिस योग्य अन्य सामग्री, सो भी अन्यत्र बहुत बार न सभव है।
आगे तेजस शरीर पर कार्मण शरीरनि का उत्कृष्ट सचयस्थान का विशेष कहै है -
तेजासरीरजेठं, सत्तमचरिमम्हि बिदियवारस्स । कम्मस्स वि तत्थेव य, णिरये बहुबारभमिदस्स ॥२५८॥
तेजसशरोरज्येष्ठं, सप्तमचरमे द्वितीयवारस्य ।
कार्मरणस्यापि तत्रैव च, निरये बहुवारभ्रमितस्य ॥२५॥ टीका - तैजसशरीर का भी उत्कृष्ट सचय औदारिकशरीरवत् जानना । विशेष इतना जो सातवी नरक पृथ्वी विषै दूसरी बार जो जीव उपज्या होइ । सातवी पृथ्वी विर्षे उपजि, मरि, तिर्यच होइ, फेरि सातवी पृथ्वी विष उपज्या होइ; तिस ही जीवक हो है।
वहुरि आहारक शरीर का भी उत्कृष्ट सचय औदारिकशरीरवत् जानना। विशेप इतना जो आहारक शरीर को उपजावनहारा प्रमत्तसयमी ही के हो है।
बहुरि कार्माणशरीर का उत्कृष्ट सचय सो सातवी नरक पृथ्वी विष नारकिन विष जो जीव वह बार भ्रम्या होइ, तिस ही के होइ है। किस प्रकार हो है ? सो कहै है-कोई जीव बादर पृथ्वी कायनि विषै अंतर्मुहूर्त घाटि, पृथक्त्व कोडिपूर्व करि अधिक दोय हजार सागर हीन कर्म की स्थिति को प्राप्त भया । तहा तिस बादर पृथ्वीकाय सबंधी अपर्याप्त पर्याय थोरे धरै, पर्याप्त पर्याय बहुत धरै, तिनिका एकट्टा किया हुवा पर्याप्त काल बहुत भया । अपर्याप्त काल थोरा भया । ऐसे इनिको पालता सता जव-जव श्रायु वाथै, तव-तव जघन्य योग करि वाथै, यहु यथायोग्य उत्कृष्ट योग