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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २५६ प्रवद्ध बध्या, ताका स्थितिबध संपूर्ण अपना आयुमात्र हो है । वहुरि दूसरे समय जो समयप्रबद्ध बंध्या, ताका स्थितिबंध एक समय घाटि अपना आयु प्रमाण हो है । बहरि तीसरे समय बंध्या जो समयप्रबद्ध, ताका स्थितिबंध दोय समय घाटि अपना आयु प्रमाण हो है । जैसे ही चौथा आदि उत्तरोत्तर समयनि विर्षे बंधे जे समयप्रवद्ध तिनिका स्थितिबंध एक-एक समय घटता होता अंत समय विष बंध्या हुवा समयप्रबद्ध का स्थितिबंध, एक समयमात्र हो है। जातें प्रथम समय तें लगाइ अंत समय पर्यंत बधे जे समयप्रबद्ध, तिनकी अपने आयु का अंत को उलघि स्थिति न संभव है। अमै जिस-जिस समयप्रबद्ध की जितनी-जितनी स्थिति होइ, तिस-तिस समयप्रवद्ध को तितनी-तितनी स्थितिमात्र निषेक रचना जाननी। अंत विषै एक समय की स्थिति समयप्रबद्ध की कही । तहां एक निषेक संपूर्ण समयप्रबद्धमात्र जानना । बहुरि अत समय विषै गलितावशेष समयप्रबद्ध किचिदूनद्वयर्द्धगुणहानिमात्र सत्वरूप एकठे हो है । जे समयप्रबद्ध बधे, तिनि के निषेक पूर्वं गले, निर्जरारूप भए, तिनितै अवशेष निषेकरूप जे समयप्रबद्ध रहे, तिनिको गलितावशेष कहिए । ते सर्व एकठे होइ किछु घाटि ड्योढ गुणहानिमात्र समयप्रबद्ध सत्तारूप एकठे अत समय विषै होहि है । बहुरि तीहि अत समय विष ही तिनि सबनि का उदय हो है । आयु के अंत भए पीछे ते रहै नाही। तातै तीहि समय सर्व निर्जरै है; असे देव-नारकीनि कै तौ वैक्रियिक गरीर का अर मनुष्य-तिर्यचनि के औदारिक शरीर का अत समय विर्ष किचिदून द्वयर्धगुणहानिमात्र समयप्रबद्धनि का सत्त्व और उदय युगपत् जानना।
आगै किस स्थान विर्ष सामग्रीरूप कैसी आवश्यक सयुक्त जीव विषै उत्कृष्ट सचय हो है, सो कहै है
ओरालियवरसंचं, देवुत्तरकुरुवजादजीवस्स । तिरियमणुस्सस्स हवे चरिमदुचरिमे तिपल्लठिदिगस्स ॥२५६॥
औरालिकवरसंचयं, देवोत्तरकुरूपजातजीवस्य ।
तिर्यग्मनुष्यस्य भवेत्, चरमद्विचरमे त्रिपल्यस्थितिकस्य ॥२५६।। टीका - औदारिक आदि शरीरनि की जहां जीव कै उत्कृष्टपनै बहुत परमाणू एकठे होइ; तहां उत्कृष्ट संचय कहिए । तहां जो जीव तीन पल्य आयु धरै, देवकुरु वा उत्तरकुरु भोंगभूमि का तिर्यच वा मनुष्य होइ उपज्या, तहां उपजने