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[ गो-मटसार जीवकाण्ड गाथा २३८-२३६-२४०
अव्वाघादी अंतोमुत्तकालट्ठिदी जहण्णिदरे । पज्जत्तीसंपुण्णे, मरणं पि कदाचि संभवई ॥२३८॥
अव्याघाति अंतर्मुहूर्तकालस्थिती जघन्येतरे ।
पर्याप्तिसंपूर्णायां, मरणमपि कदाचित् संभवति ॥२३॥ टीका - सो आहारक शरीर अव्याबाध है; वैक्रियिक शरीर की ज्यों कोई वज्र पर्वतादिक करि रुकि सकै नाही। आप किसी को रोक नाही । वहुरि जाकी जघन्य वा उत्कृष्ट अतर्मुहुर्त काल प्रमाण स्थिति है; असा है । बहुरि जब आहारक शरीर पर्याप्ति पूर्ण होइ, तब कदाचित् कोई आहारक काययोग का धारी प्रमत्त मुनि का आहारक काययोग का काल विष अपने आयु के क्षय ते मरण भी संभव
आहरदि अणेण मुरणी, सहमे अत्थे सयस्स संदेहे । गत्ता केवलिपासं, तह्मा आहारगो जोगो १ ॥२३॥
आहारत्यनेन मुनिः, सूक्ष्मानर्थान् स्वस्य संदेहे ।
गत्वा केवलिपावं तस्मादाहारको योगः ॥२३९॥ टीका - आहारक ऋद्धि करि संयुक्त प्रमत्त मुनि, सो पदार्थनि विषै आप के सदेह होते, ताके दूरि करने के अथि केवली के चरण के निकट जाइ, आप तै अन्य जो केवली, तीहिकरि जो सूक्ष्म यथार्थ अर्थ को प्राहरति कहिए ग्रहण करै, सो
आहारक कहिए । आहारस्वरूप होइ, ताकी आहारक कहिए । सो ताकै तो शरीर पर्याप्ति पूर्ण होते, आहार वर्गणानि करि आहारक शरीर योग्य पुद्गल स्कंधनि के ग्रहण करने की शक्ति धरै, आत्मप्रदेशनि का चचलपना; सो आहारक काययोग जानना।
आगे आहारक मिश्र काययोग को कहै हैआहारयमुत्तत्थं, विजाण मिस्सं तु अपरिपुण्णं तं । जो तेण संपजोगो, आहारयमिस्सजोगो सो २ ॥२४०॥ .
१ पटमाटागम • धवला पुस्तक १, पृष्ठ २६६ गाथा १६४ । २ पट्टागम-घवला पुग्तक १, पृष्ठ २६६, गाथा १६५ ।