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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
आहारकमुक्तार्थ विजानीहि मिश्रं तु अपरिपूर्ण तत् । यस्तेन संप्रयोगः श्राहारक मिश्रयोगः सः
॥२४० ॥
टीका - पूर्वोक्त लक्षरण लीएं श्राहारक शरीर, सो यावत् काल अंतर्मुहूर्तपर्यत पूर्ण न होइ, प्रहार वर्गणारूप पुद्गल स्कंधनि का आहारक शरीररूप परिणामावने कौ असमर्थ होइ, तावत् काल श्राहारक मिश्र कहिए । इहां पूर्वे जो श्रदारिक शरीररूप वर्गरणा है, ताके मिलाप मिश्रपना जानना । तींहि आहारक मिश्र करि सहित जो संप्रयोग कहिए अपूर्ण शक्तियुक्त आत्मा के प्रदेशनि का चचलपना, सो आहारक मिश्रकाययोग हे भव्य ! तू जानि ।
आगे कार्माण काय योग को कहै है
कम्मेव य कम्मभवं, कम्मइयं जो दु तेरा संजोगो । कम्मइयकायजोगो, इगिविगतिगसमयकालेसु ॥ २४१॥
कर्मैव च कर्मभवं, कार्मणं यस्तु तेन संयोगः । कार्मर काययोगः, एकद्विक त्रिकसमयकालेषु ॥ २४१ ॥
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टीका - कर्म कहिए ज्ञानावरणादिरूप पुद्गल स्कंध, सोइ कार्माण शरीर जानना । अथवा कर्म जो कार्माण शरीर नामा नामकर्म, ताके उदय करि भया, सो कार्मारण शरीर कहिए । तीहि कार्मारण स्कंध सहित वर्तमान जो संप्रयोगः कहिए आत्मा के कर्मग्रहणशक्ति धरै प्रदेशनि का चंचलपना, सो कार्मारणकाय योग है । सो विग्रह गति विषै एक समय वा दोय समय वा तीन समय काल प्रमारण हो है । अर केवल समुद्धात विषै प्रतरद्विक अर लोक पूर्ण इनि तीन समयनि विषे हो है । और काल विषै कार्मारण योग न हो है । याही ते यह जान्या, जो कार्माण विना और जे योग कहे, ते रुकै नाही, तौ अतर्मुहूर्त पर्यंत एक योग का परिणमन उत्कृष्ट रहै; पीछे और योग होइ । बहुरि जो अन्य करि रुकै तौ एक समयको आदि देकर अंतर्मुहूर्त पर्यंत एक योग का परिणमन यथासंभव जानना । सो एक जीव की अपेक्षा तो से है । अर नाना जीव की अपेक्षा 'उपसम सुहम' इत्यादि गाथानि करि आठ सांतर मार्गणा विना अन्य मार्गणानि का सर्व काल सद्भाव का ही है ।
१. पटखडागम घवला पुस्तक १, पृष्ठ २६७, गाथा १६६ ।