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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
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भी श्रुतज्ञानावरण वीर्यातराय का क्षयोपशम की मंदता होते कौऊ धर्म्यध्यान का विरोधी शास्त्र का अर्थ विषे संदेह उपजै ताके दूरि करने के निमित्त आहारक शरीर उपजै है |
णियखेत्ते केवलिदुगविरहे णिक्कम्मर पहुदिकल्लाणे । परखेत्ते संवित्ते, जिगजिणघरवंदणट्ठं च ॥ २३६॥
निजक्षेत्रे केवलद्विकविरहे निष्क्रमरणप्रभृतिकल्याणे | परक्षेत्रे संवृत्ते, जिनजिनगृहवंदनार्थ च ॥२३६॥
टीका - निज क्षेत्र जहा अपनी गमनशक्ति होंइ, तहा केवली श्रुतकेवली न पाइए । बहुरि परक्षेत्र, जहां अपने श्रदारिक शरीर की गमन शक्ति न होंइ, तहां केवली श्रुतकेवली हों अथवा तहा तपज्ञान निर्वारण कल्याणक होइ, तौ तहा असंयम दूर करने के निमित्त वा संदेह दूर करने के निमित्त वा जिन र जिनमंदिर तिन की वंदना करने के निमित्त, गमन करने को उद्यमी भया, जो प्रमत्त संयमी, ताकै प्रहारक शरीर हो है ।
उत्तमगम्हि हवे, धादूविहीणं सुहं असंहणणं । सुहसंठाणं धवलं, हत्थपमाणं पसत्थुदयं ॥ २३७॥
उत्तमांगे भवेत्, धातुविहीनं शुभम संहननम् । शुभसंस्थानं धवलं हस्तप्रमारणं प्रशस्तोदय ॥ २३७॥
टीका - सो आहारक शरीर कैसा हो है ? रसादिक सप्त धातु करि रहित हो है । बहुरि शुभ नामकर्म के उदय ते प्रशस्त अवयव का धारी शुभ हो है । बहुरि संहनन जो हाडों का बंधान तीहि करि रहित हो हैं । बहुरि शुभ जो सम चतुरस्रसंस्थान वा अगोपाग का आकार, ताका धारक हो है । वहुरि चंद्रकातर्माणि समान श्वेत वर्ण हो है । बहुरि एक हस्त प्रमारण हो है । इहां चौवीस व्यवहागगुल प्रमाण एक हस्त जानना । बहुरि प्रशस्त जो ग्राहारक शरीर बंधनादिक पुण्यरूप प्रकृति, तिनि का है उदय जाकै, अंसा हो है । सा श्राहारक शरीर उत्तमांग जो है मुनि का मस्तक, तहां उत्पन्न हो है ।