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[ गोम्मटसार नौवकाण्ड गाया २३४-२३५ __ वहुरि जो अपने शरीर ही कौं अनेक विकाररूप करें, सो अपृथक् विक्रिया कहिए।
आगै वैक्रियिक मिश्रकाय योग कहैं हैंवेगुन्वियउत्तत्थं, विजारण मिस्सं तु अपरिपुण्णं तं । जो तेण संपयोगो, वेगुन्वियमिस्सजोगो सो १ ॥२३४॥ वैविकमुक्तार्थ, विजानीहि मिथं तु अपरिपूर्ण तत् ।
यस्तेन संप्रयोगो, वैविकमिश्रयोगः सः ॥२३४॥ टीका - पूर्वोक्त लक्षण ने लीएं जो वैविक वा वैक्रियिक शरीर, सो यावत् काल अंतर्मुहूर्त पर्यंत पूर्ण न होइ-शरीर पर्याप्ति की संपूर्णता का अभाव करि वैक्रियिक काययोग उपजावने कौं असमर्थ होइ, तावत् काल वैक्रियिक मिश्र कहिए । मिश्रपना इहां भी औदारिक मिश्रवत् जानना । तीहि वैक्रियिक मिश्र करि सहित संप्रयोग कहिए कर्म-नोकर्म ग्रहण की शक्ति को प्राप्त अपर्याप्त कालमात्र आत्मा के प्रदेशनि का चंचल होना: सो वैक्रियिक मिश्र काययोग कहिए । अपर्याप्त योग का नाम मिथ योग जानना ।
आगे आहारक काययोग की पांच गाथानि करि कहै हैंआहारस्सुदएण य, पमत्तविरदस्स होदि पाहारं । असंजमपरिहरणटुं, संदेहविणासणठं च ॥२३॥
आहारस्योदयेन च, प्रमत्तविरतस्य भवति आहारकम् । असंयमपरिहरणार्थ, संदेहविनाशनार्थं च ॥२३५॥
टोका - प्रमत्त विरति षष्ठम गुणस्थानवर्ती मुनि, ताके आहारक शरीर नामा नामकर्म के उदय ते पाहार वर्गणारूप पुद्गल स्कंधनि का आहारक शरीररूप परिणमने करि आहारक शरीर हो है । सो किस अर्थि हो है ? अढाई द्वीप विर्ष तीर्थयात्रादिक निमित्त वा असंयम दूरि करने के निमित्त वा ऋद्धियुक्त होते
२.पट्यागम-पवना पुन्नक,पृष्फ २६४, गाथा १६३।