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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
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टीका - विविध नानाप्रकार शुभ अशुभरूप अणिमा, महिमा आदि गुण तिनकी ऋद्धि जो महतता, तीहि करि संयुक्त देव - नारकीनि का शरीर, सो वैगूर्व कहिए वा वैगूर्विक कहिए वा वैक्रियिक कहिए । तहा विगूर्व कहिए नानाप्रकार गुण, तिस विषे भया सो वैगर्व है । अथवा विगर्व है प्रयोजन जाका, सो वैगूर्विक है । इहां ठण् प्रत्यय आया है । अथवा विविध नानाप्रकार जो क्रिया, अनेक अणिमा आदि विकार सो विक्रिया । तहां भया होइ, वा सो विक्रिया जाका प्रयोजन होइ, सो वैक्रियिक है । जैसी निरुक्ति जानना । जो वैर्विक शरीर के अथि तिस शरीररूप परिणमने योग्य जो आहार वर्गणारूप स्कंधनि के ग्रहण करने की शक्ति धरै, आत्मप्रदेशनि का चंचलपना, सो वैगूर्विक काय योग जानना ।
अथवा वैक्रियिक काय, सोई वैक्रियिक काय योग है । इहां कारण विषै कार्य का उपचार जानना । सो यहु उपचार निमित्त अर प्रयोजन पूर्ववत् धरै है । तहां वैक्रियिक काय ते जो योग भया, सो वैक्रियिक काय योग है । यहु निमित्त अतिहि योग ते कर्म - नोकर्म का परिणमन होना, सो प्रयोजन सभवै ।
आगे देव - नारकी के तौ कह्या और भी किसी-किसी के वैक्रियिक काय योग संभव है, सो कहै है
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बादरतेऊवाऊ, पंचिदियपुण्णगा विगुव्वंति । रालियं सरीरं, विगुव्वणप्पं हवे जेसिं ॥ २३३ ॥
बादरतेजोवायुपंचेद्रिय पूर्णका विगूर्वति । श्ररालिकं शरीरं, विगूर्वरणात्मकं भवेद्येषाम् ॥२३३॥
टीका - बादर तेजकायिक वा वातकायिक जीव, बहुरि कर्मभूमि विषे जे उत्पन्न भए चक्रवर्ति को आदि देकरि सैनी पचेंद्री पर्याप्त तिर्यच वा मनुष्य, बहुरि भोगभूमिया तिर्यच वा मनुष्य ते औदारिक शरीर को विक्रियारूप परिणमा है । जिनिका प्रदारिक शरीर ही विक्रिया लीए पाइए है । ते जीव अपृथक् विक्रिया रूप परिणम है । श्रर भोगभूमियां, चक्रवर्ति पृथक् विक्रिया भी करें है ।
जो अपने शरीर तं भिन्न अनेक शरीरादिक विकाररूप करें, सो पृथक् विक्रिया कहिए ।