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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया २३१-२३२
विर्षे कार्य का उपचार जानना । इहां उपचार है सो निमित्त र प्रयोजन धरै है । तहां औदारिक काय तै जो योग भया, सो श्रदारिक काय योग कहिए; सो यहु ती निमित्त । बहुरि तिस योग ते ग्रहे पुद्गलनि का कर्म - नोकर्मरूप परिणमन, सो प्रयोजन सभव है । तातै निमित्त र प्रयोजन की अपेक्षा उपचार का है ।
आगे श्रदारिक मिश्रकाययोग को कहै है
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ओरालिय उत्तत्थं, विजारण मिस्सं तु अपरिपुण्गं तं । जो तेण संपजोगो, ओरालियमिस्सजोगो सो ॥२३१॥
टीका - पूर्वोक्त लक्षण लीएं जो प्रदारिक शरीर, सो यावत् काल अंतर्मुहूर्त पर्यंत पूर्ण न होइ, अपर्याप्त होइ, तावत् काल प्रौदारिक मिश्र नाम अनेक कैं मिलने का है; सो इहां पर्याप्त काल संबंधी तीन समयनि विषै संभवता जो कार्माण योग, ताकी उत्कृष्ट कार्माण वर्गणा करि संयुक्त है; ताते मिश्र नाम है । अथवा परमागम विपै जैसे ही रूढि है । जो अपर्याप्त शरीर को मिश्र कहिए, सो तीहि श्रदारिक मिश्र करि सहित संप्रयोग कहिए, ताके अर्थ प्रवर्त्या जो आत्मा के कर्म - नोकर्म ग्रहणे की शक्ति धरै प्रदेशनि का चचलपना; सो योग है । सो शरीर पर्याप्ति की पूर्णता के प्रभाव ते दारिक वर्गणा स्कंधनि कौ संपूर्ण शरीररूप परिणामावने कौ असमर्थ है । सा श्रदारिक मिश्र काययोग तू जानि ।
आगै विक्रियिक काय योग को कहै है
विविहगुणइड्ढिजुत्तं विविकरियं वा हु होदि वेगुब्वं । तिस्से भवं च गेयं, वेगुब्वियकायजोगो सो २ ॥ २३२ ॥
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श्रौरालिकमुक्तार्थ, विजानीहि मिश्रं तु अपरिपूर्णं तत् । यस्तेन संप्रयोगः, औरालिकमिश्रयोगः सः ॥२३१॥
विविधगुणयुक्तं, विक्रिय वा हि भवति विगूर्वम् ।
तस्मिन् भवं च ज्ञेयं, वैगूविककाययोगः सः ॥२३२॥
पट्ट्पदानम
- धवला पुस्तक १ पृष्ठ २६३, गा स. १६१
पुस्तक १, पृष्ठ २६३, गाया १६२ ॥
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