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________________ सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भावाटीका ] [ ३६३ पूर्वोक्त उपचार कह्या, तिसके प्रयोजनभूत सर्व जीवनि की दया, तत्त्वार्थ का उपदेश शुक्लध्यानादि सर्व जानने । आगे काययोग का निरूपण प्रारभ है । तहां प्रथम ही काय योग का भेद औदारिक काययोग, ताको निरुक्तिपूर्वक कहै है - पुरुमहदुदारुरालं, एयठो संविजाण तम्हि भवं । औरालियं तमु (त्तिउ)च्चइ औरालियकायजोगो सो ॥२३०॥ पुरुमहदुदारमुरालमेकार्थः संविजानीहि तस्मिन्भवम् । औरालिकं तदुच्यते औरालिककाययोगः सः ॥२३०॥ टीका-पुरु वा महत् वा उदार वा उराल वा स्थूल ए एकार्थ है । सो स्वार्थ विषे ठण् प्रत्यय ते जो उदार होइ वा उराल होइ, सो औदारिक कहिए वा औरालिक भी कहिए अथवा भव अर्थ विर्ष ठण् प्रत्यय ते जो उदार विष वा उराल विष उत्पन्न होंइ, सो प्रोदारिक कहिए वा औरालिक भी कहिए । बहुरि सचयरूप पुद्गलपिड, सो प्रौदारिक काय कहिए । औदारिक शरीर नामा नामकर्म के उदय ते निपज्या औदारिक शरीर के आकार स्थूल पुद्गलनि का परिणमन, सो औदारिक काय जानना । वैक्रियिक आदि शरीर सूक्ष्म परिणम है, तिनिकी अपेक्षा यहु स्थूल है; तातै औदारिक कहिए है। इहां प्रश्न - उपजै है कि सूक्ष्म पृथ्वीकायिकादि जीवनि के स्थूलपना नाही है, तिनिको औदारिक शरीर कैसे कहिए है ? ताकां समाधान - इन हूतै वैक्रियिकादिक शरीर सूक्ष्म परिणमै है, ताते तिनकी अपेक्षा स्थूलपना आया । अथवा परमागम विष असी रूढि है; तातै समभिरूढि करि सूक्ष्म जीवनि के औदारिक शरीर कह्या; सो औदारिक शरीर के निमित्त आत्मप्रदेशनि के कर्म-नोकर्म ग्रहण की शक्ति, सो औदारिक काय योग कहिए है । अथवा औदारिक वर्गणारूप पुद्गल स्कधनि को औदारिक शरीररूप परिणमावने को कारण, जो आत्मप्रदेशनि का चचलपना, सो औदारिक काययोग है भव्य ! तू जानि । अथवा औदारिक काय सोई औदारिककाय योग है । इहां कारण १ - षट्खडागम घवला पुस्तक १, पृ. २६३ गाथा स १६० पाठभेद-त विजाण तिगुत्त ।
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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