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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गापा २२८-२६२ मनःसहितानां वचनं, दृष्टं तत्पूर्वमिति सयोगे :
उक्तो मन उपचारेणेद्रियज्ञानेन हीने ॥२२८॥ टोका - इन्द्रिय ज्ञान जो मतिज्ञान, तीहि करि रहित असा जु सयोग केवली, तीहि विपं मुख्यपनै तौ मनो योग है नाही, उपचारते है। सो उपचार विष निमित्त का प्रयोजन है; सो निमित्त इहां यह जानना - जैसे हम आदि छनस्थ जीव मन करि संयुक्त, तिनिके मनोयोग पूर्वक अक्षर, पद, वाक्य, स्वरूप वचनव्यापार देखिए है । तातें केवली के भी मनोयोग पूर्वक वचन योग कह्या ।
इहां प्रश्न - कि छवस्थ हम आदि अतिशय रहित पुरुपनि विपें जो स्वभाव देखिए, सो सातिशय भगवान केवली विष कैसे कल्पिए ?
ताका समाधान - सादृश्यपना नाहीं है; इस ही वास्ते छद्मस्थ के मनोयोग मुख्य कह्या । अर केवली के कल्पनामात्र उपचाररूप मनोयोग कहा है।
सो इस कहने का भी प्रयोजन कहै है- . अंगोवंगुदयादो, दव्वमणठें जिणंदचंदह्मि । मणवग्गरणखंधाणं, आगमणादो दु मणजोगो ॥२२॥
अंगोपांगोदयात्, द्रव्यमनोऽथ जिनेंद्रचंद्रे ।
मनोवर्गणास्कंधानामागमनात् तु मनोयोगः ॥२२९॥ टीका - जिन है इद्र कहिए स्वामी जिनिका, असे जो सम्यग्दृप्टी, तिनिकै चंद्रमा समान ससार-अाताप अर अजान अवकार का नाश करनहारा, असा जो मयोगी जिन, तीहि विप अगोपांग नामा नामकर्म के उदय ते द्रव्यमन फूल्या आठ पंखडी का कमल के आकार हृदय स्थानक के मध्य पाईए है। ताके परिणमने कौं कारणभृत मन वर्गणा का आगमन तें द्रव्य मन का परिणमन है । तातें प्राप्तिरूप प्रयोजन तं पूर्वोक्त निमित्त ते मुख्यपनै भावमनोयोग का अभाव है । तथापि मनयोग उपचार मात्र कह्या है । अथवा पूर्व गाथा विष कहा था; यात्मप्रदेशनि के फर्म नोकर्म का ग्रहणम्प शक्ति, सो भावमनोयोग, वहरि याही ते उत्पन्न भया मनोवर्गगाम्प पुद्गलनि का मनरूप परिणमना, सो द्रव्यमनोयोग, सो इस गाथा मृत परि. नंभव है । तातै केवली के मनोयोग कह्या है । तु शब्द करि केवली के