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________________ ३१० ] [ गोम्मटसार जीवकाण्ड गामा १६५ टोका - इंद्रिय दोय प्रकार है - एक भावेद्रिय, एक द्रव्येद्रिय । तहां लब्धि-उपयोगरूप तौ भावेंद्रिय है। तहां मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम भई जो विशुद्धता इंद्रियनि के जे विषय, तिनके जानने की शक्ति जीव के भई, सो ही है लक्षण जाका, सो लब्धि कहिए । वहुरि मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम तै निपज्या ज्ञान, विषय जानने का प्रवर्तनरूप सो, उपयोग कहिए। जैसे किसी जीव कें सुनने की शक्ति है। परंतु उपयोग कही और जायगां लगि रह्या है, सो विना उपयोग किछू सुन नाही जान्या चाहे है अर क्षयोपशम शक्ति नाही, तौ कैसे जाने ? तातै लब्धि दोऊ मिले विषय का ज्ञान होंइ । ताते इनिकों भावेंद्रिय कहिए । । भाव कहिए चेतना परिणाम, तीहिस्वरूप जो इंद्रिय, सो भावेद्रिय कहिए । जाते इंद्र जो आत्मा, ताका जो लिग कहिए चिह्न, सो इंद्रिय है । असी निरुक्ति करि भी लब्धि-उपयोगरूप भावेद्रिय का ही दृढपनां हो है । बहुरि कोऊ र उपयोग बहुरि निर्वृत्ति र उपकरण रूप द्रव्येद्रिय है । तहां जिनि प्रदेशनि करि विपयति को जाने, सो निर्वृत्ति कहिए । बहुरि बाके सहकारी निकटवर्ती जे होंड, तिनको उपकरण कहिए । सो जातिनामा नामकर्म के उदय सहित शरीरनामा नामकर्म के उदयतै निपज्या जो निर्वृत्ति - उपकरणरूप देह का चिह्न, एकेद्रियादिक का गरीर का यथायोग्य अपने-अपने ठिकाने आकार का प्रकट करनहारा पुद्गल द्रव्यस्वरूप इद्रिय, सो द्रव्येद्रिय है । जैसे इंद्रिय द्रव्य-भाव भेद करि दोय प्रकार है । तहां लब्धि-उपयोग भावेद्रिय है । तहा विषय के ग्रहण करने की शक्ति, सो लब्धि है । अर विषय के ग्रहणरूप व्यापार, सो उपयोग है । अव इंद्रिय शब्द की निरुक्ति करि लक्षण कहै हैं 'प्रत्यक्षनिरतानि इंद्रियारिण' अक्ष कहिए इन्द्रिय, सो अक्ष अक्ष प्रति जो प्रव मो प्रत्यक्ष कहिए । असा प्रत्यक्षरूप विषय अथवा इंद्रिय ज्ञान तिहि विषे निरतानि हिए व्यापार रूप प्रवर्ते, ते इंद्रिय है ।
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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