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________________ सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ] [ २७५ पन करै है । तातै प्रौदारिक मिश्र काययोग का धारी केवली भगवान, सो कपाट युगल का काल विर्षे अपर्याप्तपना कौ भज है, ऐसा सिद्धात विर्षे कह्या है । प्रागै लब्धि अपर्याप्तकादि जीवनि के गुणस्थाननि का सभवने-असंभवने का विशेष कहै है - लद्धिअपुण्णं मिच्छे, तत्थवि विदिये चउत्थ-छठे य । पिव्वत्तिअपज्जत्ती, तत्थ वि सेसेसु पज्जत्ती ॥ १२७ ॥ लब्ध्यपूर्ण मिथ्यात्वे, तत्रापि द्वितीये चतुर्थषष्ठे च । निर्वृत्यपर्याप्तिस्तत्रापि शेषेषु पर्याप्तिः ॥ १२७ ॥ टीका - लब्धि अपर्याप्तक जीव मिथ्यादृष्टि गुणस्थान विर्षे ही पाइए है, और गुणस्थान वाकै संभवै नाही; जातै सासादनपना आदि विशेष गुणनि का ताकै प्रभाव है । बहुरि तीहि पहिला मिथ्यादृष्टि विषै, दूसरा सासादन विषै, चौथा असंयत विषे, छठा प्रमत्त विष - इनि चारों गुणस्थाननि विष निर्वृत्ति अपर्याप्तक पाइए है । तहां पहला वा चौथा सू तो मरि करि जीव चारों गतिनि विष उपजै है । अर सासादन सौ मरिकरि नरक विना तीनि गतिनि विष उपजै है । सो इनि तीनो गुणस्थान विषे जन्म का प्रथम समय तै लगाइ यावत् औदारिक, वैक्रियिक शरीर पर्याप्त पूर्ण न होइ, तावत् एक समय घाटि शरीर पर्याप्ति का काल पर्यत निवृत्ति अपर्याप्तक है । बहुरि प्रमत्त गुणस्थान विषै यावत् आहारक शरीर पर्याप्ति पूर्ण न होइ, तावत् एक समय घाटि आहारक शरीर पर्याप्ति काल पर्यत निर्वत्ति अपर्याप्तक है । बहुरि इन कहे चारो गुणस्थाननि विर्ष अर अवशेष रहे मिश्रादिक सयोगी पर्यन्त नव गुणस्थान विष पर्याप्तक जीव पाइए है, जाते ताका कारणभूत पर्याप्ति नामा नामकर्म का उदय सर्वत्र संभव है। भावार्थ - लब्धि अपर्याप्तकनि के गुणस्थान एक पहिला, निर्वृत्ति अपर्याप्तकनि के गुणस्थान च्यारि - पहिला, दूसरा, चौथा, छळा; पर्याप्तनि के गुणस्थान सर्वसयोगी पर्यन्त जानना । आगै अपर्याप्त काल विष सासादन अर असंयत गुणस्थान जहां नियम करि न संभवै, सो कहै है -
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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