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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका पीठिका ]
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ताका समाधान - जीव पर भव को गमन करै, ताकी विदिशा करि वर्जित च्यारि दिशा वा अधः, ऊर्ध्व विषै गमन क्रिया होइ है, सो च्यारि प्रकार है - ऋजु गति, पाणिमुक्ता गति, लांगल गति, गोमूत्रिका गति । तहां सूधा गमन होइ, सो ऋजु गति है । जामै बीचि एक बार मुडे, सो पाणिमुक्ता गति है । जामै बीच दोय बार मूडे, सो लांगल गति है। जामै बीच तीन बार मुडे, सो गोमत्रिका गति है। सो मुडने रूप जो विग्रह गति, ताविर्षे जीव योगनि की वृद्धि करि युक्त हो है । ताकरि शरीर की अवगाहना भी वृद्धिरूप हो है । तातें ऋजुगति करि उपज्या जीव के जघन्य अवगाहना कही, सो सर्वजघन्य अवगाहन का प्रमाणक है है । घनागुल रूप जो प्रमाण, ताका पल्य का असंख्यातवां भाग उगणीस बार, बहुरि आवली का असंख्यातवा भाग नव बार, बहुरि एक अधिक प्रावली का असंख्यातवां भाग बाईस बार, बहुरि संख्यात का भाग नव बार इतने तो भागहार जानने । बहुरि तिस घनागुल को प्रावली का असंख्यातवां भाग का बाईस बार गुणकार जानने । तहां पूर्वोक्त भागहारनि की मांडि परस्पर गुणन कीए, जेता प्रमाण आवै, तितना भागहार का प्रमाण जानना । बहुरि बाईस जायगा प्रावली का असंख्यातवा भाग को माडि परस्पर गुण जो प्रमाण आवै, तितना गुणकार का प्रमाण जानना । तहां घनागुल के प्रमाण को भागहार के प्रमाण का भाग दीए, अर गुणकार का प्रमाण करि गुरणे जो प्रमाण आवै, तितना जघन्य अवगाहना के प्रदेशनि का प्रमाण जानना । जैसे ही आगे भी गुणकार, भागहार का अनुक्रम जानना।
प्रागै इद्रिय आश्रय करि उत्कृष्ट अवगाहनानि का प्रमाण, तिनिके स्वामीनि को निर्देश करै है -
साहियसहस्समेकं, बारं कोसूरणमेकमेक्कं च । जोयणसहस्सदीहं, पम्मे वियले महामच्छे ॥६॥ साधिकसहस्रमेकं, द्वादश क्रोशोनमेकमेकं च । ।
योजनसहस्रदीर्घ, पद्म विकले महामत्स्ये ॥१५॥ टोका - एकेद्रियनि विर्ष स्वयंभूरमण द्वीप के मध्यवर्ती जो स्वयंप्रभ नामा पर्वत, ताका परला भाग संबंधी कर्मभूमिरूप क्षेत्र विष उपज्या असा जो कमल, तीहि विर्षे किछु अधिक एक हजार योजन लवा, एक योजन चौडा असा उत्कृष्ट