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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ७९-८०
अब इन पक्तिनि का जोड देने के अर्थ करणसूत्र कहिए है 'मुहभूमीजोगदले पदगुरिपदे पदधणं होदि' मुख आदि अर भूमी अंत, इनिको जोडे, ग्राधा करि पद जो स्थान प्रमाण, तीहि करि गुणै, सर्वपदधन हो है ।
सो प्रथम पक्ति विषै मुख एक अर भूमी उगरणीस जोडे वीस, ताका आधा दश, पद उगणीस करि गुणै एक सौ नब्बे सर्व जोड हो है ।
बहुरि द्वितीय पंक्ति विषै मुख दोय, भूमी अड़तीस जोडै चालीस, आधा कीए वीस पद, उगणीस करि गुणै, तीन से असी सर्व जोड हो है ।
बहुरि तीसरी पक्ति विषे मुख तीन, भूमी सत्तावन जोडै साठि, प्राधा कीएं तीस, पद उगणीस करि गुणै पांच से सत्तरि सर्व जोड हो है ।
आगै एकैद्रिय, विकलत्रय जीवसमासनि करि मिले हुए असे पचेद्रिय संबंधी जीवसमास स्थान के विशेषनि कौ गाथा दोय करि कहै है -
इगवणं इगिदिगले, असब्सिगिगयजलथलखगाणं । गब्भभवे समुच्छे, दुतिगं भोगथलखेचरे दो दो ॥ ७६ ॥ अज्जवमलेच्छमणुए, तिदु भोगकुभोगभूमिजे दो दो । सुरणिरये दो दो इदि, जीवसमासा हु अडरगउदी ॥ ८० ॥
एकपंचाशत् एकविकले, प्रसंज्ञिसंज्ञिगतजलस्थलखगानाम् । गर्भभवे सम्मूर्छे, द्वित्रिकं भोगस्थलखेचरे द्वौ द्वौ ॥७९॥ श्रार्यम्लेच्छमनुष्ययोस्त्रयो द्वौ भोगकुभोगभूमिजयोद्वौ द्वौ । सुरनियो द्वौ इति, जीवसमासा हि श्रष्टानवतिः ॥ ८० ॥
टीका - पृथ्वी, ग्रप्, तेज, वायु, नित्यनिगोद - इतरनिगोद के सूक्ष्म, बादर भेद करि छह युगल र प्रत्येक वनस्पती का सप्रतिष्ठित, अप्रतिष्ठित भेद करि एक युगल, ऐसे एकेन्द्रिय के सात युगल । वहुरि बेद्री, तेद्री, चौद्री ए तीन ऐसे ए सतरह भेद पर्याप्त, निर्वृत्ति पर्याप्त, लब्धि अपर्याप्त भेद करि तीन-तीन प्रकार है । ऐसे एकेद्रिय, विकलेद्रियनि विपै इक्यावन भेद भये । बहुरि पंचेद्रियरूप तियंच गति विषै कर्मभूमि के तिर्यंच तीन प्रकार है । तहा जे जल विषे गमनादि करें, ते जलचर; अर जे भूमि