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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका
समस्तपना करि केवलज्ञान विना न जानिये है, यातै सर्वपर्यायरूप जीव जानने को असमर्थपना है, तथापि तज्जातयः कहिए सोई एकेन्द्रियत्वादिरूप है जाति जिनकी। बहरि संगहीतार्थाः कहिए समस्तपना करि गभित कीए है, एकठे कीये है व्यक्ति जिनिकरि, ऐसे जीव है, तेई जीवसमास है, ऐसा जानना । अथवा अन्य अर्थ कहै है - संग्रहीतार्थाः कहिए समस्तपना करि गर्भित करी है, एकठी करी है व्यक्ति जिन करि ऐसी तज्जातयः कहिए ते जाति है । जातै विशेष विना सामान्य न होइ । काहे ते? जात असा वचन है - 'निविशेष हि सामान्यं भवेच्छशविषारणवत्' याका अर्थ - विशेष रहित जो सामान्य, सो ससा के सीग समान अभावरूप है, ताते संगृहीतार्थ जे वे जाति, तिनका कारणभूत जातिनि करि जीव प्राणी है, ते 'अनेकपि' कहिए यद्यपि अनेक है, बहुविधा अपि कहिए बहुत प्रकार है ; तथापि ज्ञायते कहिए जानिए है, ते वे जाति जीवसमास है, असा जानना ।
भावार्थ - जीवसमास शब्द के तीन अर्थ कहे । तहां एक अर्थ विष एकेद्रिय-. युक्तत्वादि समान धर्मनि को जीवसमास कहे । एक अर्थ विर्ष एकेद्रियादि जीवनि को जीवसमास कहे । एक अर्थ विष एकेद्रियत्वादि जातिनि को जीवसमास कहे, असे विवक्षा भेद करि तीन अर्थ जानने ।
आगै जीवसमास की उत्पत्ति का कारण बहुरि जीवसमास का लक्षण कहै है -
तसचदुजुगाणमझे, अविरुद्धेहिं जुदजादिकम्मुदये । जीवसमासा होति हु, तब्भवसारिच्छसामण्णा ॥ ७१ ॥ त्रसचतुर्युगलानां मध्ये, अविरुद्धैर्युतजातिकर्मोदये । जोवसमासा भवंति हि, तद्भवसादृश्यसामान्याः ॥ ७१ ॥
टीका - त्रस-स्थावर, बहुरि बादर-सूक्ष्म, बहुरि पर्याप्त-अपर्याप्त, बहुरि प्रत्येकसाधारण ऐसे नाम कर्म की प्रकृतिनि के च्यारि युगल है । तिनिके विप यथासभव परस्पर विरोध रहित जे प्रकृति, तिनिकरि सहित मिल्या ऐसा जो एकेद्रियादि जातिरूप नाम कर्म का उदय, ताकी होते सतै प्रकट भए ऐसे तद्भवसादृश्य सामान्यरूप जीव के धर्म, ते जीवसमास है ।