SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 161
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दूसरा अधिकार : जीवसमास प्ररूपण कर्सघातिया जीति जिन, पाय चतुष्टय सार । विश्वस्वरूप प्रकाशियो, नमों अजित सुखकार२ ॥ टोका-सै गुणस्थान संवन्धी संख्यादिक प्ररूपणा के अनन्तरि जीवसमास प्ररूपणा कौं रचता संता निरुक्ति पूर्वक सामान्यपनं तिस जीवसमास का लक्षण कहै है - जेहि अरण्या जीवा, गज्जते बहुदिहा दि तज्जादी। ते पुरण संगहिवत्या, जीवसमासा ति विष्णेया ॥ ७० ॥ यरनेके जीवान, ज्ञायते बहुविधा अपि तज्जातयः । ते पुनः संगृहितार्था, जीवसमाता इति विनेयाः ॥ ७० ॥ टीका - यैः कहिए जिनि समान पर्यायरूप धर्मनि करि जीवा कहिए जीव है, ते अनेके अपि कहिए यद्यपि बहुत है, बहुविधाः कहिए वहुत प्रकार है, तथापि तज्जातयः कहिए विवक्षित सामान्यभाव करि एकठा करने से एक जाति विष प्राप्त कीए हए ज्ञायते कहिए जानिए ते कहिये जीव समान पर्यायरूप धर्मसंगहीतार्थाः कहिए अतर्भूत करी है अनेक व्यक्ति जिनिकरि असे जीवसमासाः कहिए जीवसमास है, अने जानना। भावार्थ - जैसे एक गऊ जाति विर्ष अनेक खांडी, मुडी, सावरी गऊरूप व्यक्ति सास्नादिमन्व समान धर्म करि अंतर्गभित हो है । तैसे एकेद्रियत्वादि जाति विप अनेक पृथ्वीकायादिक व्यक्ति जिनि एकेद्रियत्वादि युक्त लक्षणनि करि अतर्गभित करिण, तिनिका नाम जीवसमास है । काहे ते ? जाते 'जीवाः समस्यते यर्येषु वा ते जीवनमासाः' जीव हैं ते संग्रहरूप करिए जिनि समानधर्मनि करि वा जिनि समान लागानि विप ते वे ममानरूप लक्षण जीवसमास हैं, असी निरुक्ति हो है । इस विपण करि समस्त संसारी जीवनि का संग्रहणरूप ग्रहण करना है प्रयोजन जाका, मा जीवनमान का प्रत्पण है, नो प्रारंभ कीया है, जैसा जानना । अथवा अन्य प्रयंग है 'जीवा अनेया अपि' कहिए यद्यपि जीव अज्ञात है। काहे ते ? बहुविधन्यात बाहिर जाने जीव बहुन प्रकार हैं। नानाप्रकार प्रात्मा की पर्यायरूप व्यक्ति ते '. 'गरपान पर 'अनन्त'मा पाठान्तर है। २. म्यान पर गिमन' मा पाठान्तर है।
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy