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[ गोम्मटसार जोवकाण्ड गाथा ६८
बहुरि कैसे है सिद्ध ? नित्या: कहिये यद्यपि समय- समयवर्ती अर्थ पर्याय नि करि परिणमए सिद्ध अपने विषै उत्पाद, व्यय को करें है; तथापि विशुद्ध चैतन्य स्वभाव का सामान्यभावरूप जो द्रव्य का आकार, सो अन्वयरूप है, भिन्न न हो है, ताके माहात्म्य ते सर्वकाल विषे अविनाशीपणा कौ आश्रित है, तातै ते सिद्ध नित्यपना की नाही छोड़े है । इस विशेषरण करि क्षरण-क्षरण प्रति विनाशीक चैतन्य के पर्याय ते, एक संतानवर्ती है, परमार्थ ते कोई नित्य द्रव्य नाही है, ऐसे कहता जो वौद्धमती की प्रतिज्ञा, सो निराकरण करी है ।
वहुरि कैसे है सिद्ध' ? प्रष्टगुणा: कहिए क्षायिक सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहन, अगुरुलघुत्व, अव्याबाध नाम धारक जे आठ गुण, तिनकरि संयुक्त है । सो यहु विशेषरण उपलक्षणरूप है, ताकरि तिनि गुणनि के अनुसार अनंतानंत गुनि का तिन ही विषै अंतर्भूतपना जानना । इस विशेषरण करि ज्ञानादि गुणनि का अत्यन्त अभाव होना, सोई आत्मा के मुक्ति है ऐसे कहता जो नैयायिक अर वैशेषिक मत का अभिप्राय, सो निराकरण कीया है ।
बहुरि कैसे है सिद्ध ? कृतकृत्याः कहिए संपूर्ण कीया है कृत्य कहिए सकल कर्म का नाश अर ताका कारण चारित्रादिक जिनकरि असे है । इस विशेषरण करि ईश्वर सदा मुक्त है, तथापि जगत का निर्माण विषै नादर कीया है, तीहि करि कृतकृत्य नाही, वाकै भी किछू करना है, से कहता जो ईश्वर सृष्टिवाद का अभिप्राय, सो निराकरण कीया है ।
बहुरि कैसे है सिद्ध ? लोकाग्रनिवासिनः कहिए विलोकिए है जीवादि पदार्थ जाविषै, जैसा जो तीन लोक, ताका अग्रभाग, जो तनुवात का भी अंत, तीहिविषै निवानी है; तिप्ठे है । यद्यपि कर्म क्षय जहां कीया, तिस क्षेत्र ते ऊपरि ही कर्मक्षय के अनंतरि ऊर्ध्वगमन स्वभाव ते ते गमन करें है; तथापि लोक का अग्रभाग पर्यंत ऊर्ध्वगमन हो हैं । गमन का सहकारी धर्मास्तिकाय के प्रभाव ते तहां तै ऊपरि गमन न हो है, जैसे लोक का अग्रभाग विषै ही निवासीपणा तिन सिद्धनि के युक्त है । अन्यथा कहिए ती लोक-ग्रलोक के विभाग का अभाव होइ । इस विशेपण करि श्रात्मा के ऊर्ध्वगमन स्वभाव ते मुक्त अवस्था विपे कही भी विश्राम के प्रभाव ते उपरि-परि गमन हुवा ही करें है; से कहता जो मांडलिक मत, सो निराकरण की है।