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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
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टीका - केवल कहे जे गुणस्थानवर्ती जीव, तेई नाही है सिद्ध कहिये अपने आत्मस्वरूप की प्राप्तिरूप लक्षण धरै जो सिद्धि, ताकरि सयुक्त मुक्त जीव भी लोक विष है । ते कैसे है ? श्रष्टविधकर्मविकला : कहिये अनेक प्रकार उत्तर प्रकृतिरूप भेद जिन विषै गर्भित ऐसे जो ज्ञानावरणादिक आठ प्रकार कर्म आठ गुणनि के प्रतिपक्षी, तिनका सर्वथा क्षय करि प्रतिपक्ष रहित भए है । कैसे आठ कर्म आठ गुणनि के प्रतिपक्षी है ? सो कहै है
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मोहो खाइय सम्मं, केवलणाणं च केवलालोयं । हादि उ आवरणदुगं, अणंतविरयं हणेदि विग्धं तु ॥ सुहमं च खामकम्मं, हणेदि, आऊ हणेदि अवगहरणं । अगुरुलहूगं गोदं श्रव्वाबाहं हणेइ वेयणियं ॥
इनका अर्थ - मोहकर्म क्षायिक सम्यक्त्व की घाते है । केवलज्ञान अर केवलदर्शन को आवरणद्विक जो ज्ञानावरण- दर्शनावरण, सो घातै है । अनंतवीर्य को विघन जो अंतराय कर्म, सो घाते है । सूक्ष्मगुण को नाम कर्म घातै है । आयुकर्म अवगाहन गुण को घात है । अगुरुलघु को गोत्र कर्म घाते है । अव्याबाध को वेदनीयकर्म घात है । ऐसे आठ गुणनि के प्रतिपक्षी प्राठ कर्म जानने ।
इस विशेषण करि जीव के मुक्ति नाहीं है, ऐसा मीमांसक मत, बहुरि सर्वदा कर्ममलनि करि स्पर्शा नाही, ताते सदाकाल मुक्त ही है, सदा ही ईश्वर है ऐसा सदाशिव मत, सो निराकरण किया है ।
बहुरि कैसे है सिद्ध ? शीतीभूता कहिये जन्म-मरणादिरूप सहज दुख अर रोगादिक ते निपज्या शरीर दुख र सर्पादिक ते उपज्या श्रागंतुक दु ख ग्रर याकुलतादिरूप मानसदुख इत्यादि नानाप्रकार संसार सवधी दुख, तिनकी जो वेदना, सोई भया आतप, ताका सर्वथा नाश करि शीतल भए है, सुखी भए है । इस विशेषण करि मुक्ति विषे आत्मा के सुख का प्रभाव है, ऐसे कहता जो सास्यमत, मो निराकरण कीया है ।
बहुरि कैसे है सिद्ध ? निरंजना: कहिये नवीन ग्रास्रवरूप जो कर्ममन, मो ही भया अजन, ताकरि रहित है । इस विशेषण करि मुक्ति भए पीछे, बहुरि कर्म ग्रंजन का सयोग करि संसार हो है, ऐसे कहता जो सन्यासी मत, सो निराकरण कीया है ।