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कतकफलयुतजलं वा शरदि सरःपानीयं व निर्मलं । सकलोपशांतमोह, उपशांत कषायको भवति ॥ ६१ ॥
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ६२-६३
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टीका कतकफल का चूर्णं करि संयुक्त जो जल, सो जैसे प्रसन्न हो है अथवा मेघपटल रहित जो शरत्काल, तीहि विषे जैसें सरोवर का पानी प्रसन्न हो है, ऊपरि तें निर्मल हो है; तैसे समस्तपने करि उपशांत भया है मोहनीय कर्म जाका, सो उपशांत कषाय है । उपशांत: कहिए समस्तपनेकरि उदय होने को अयोग्य कीए है कषाय- नोकषाय जानें, सो उपशांत कषाय है । जैसी निरुक्त करि अत्यंत प्रसन्नचित्तपना सूचन किया है ।
आग क्षीण कषाय गुणस्थान का स्वरूप की प्ररूप है
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रिस्सेसखीर मोहो, फलिहामलभायणुदयसमचित्तो । खीणकसा भणदि, ग्गिंथो वीयरायहं ॥ ६२॥१ निश्शेषक्षीरणमोहः, स्फटिकामलभाजनोदकसमचित्तः । क्षीणकषायो भण्यते, निर्ग्रन्थो वीतरागैः ||६२|| टीका - अवशेष रहित क्षीण कहिए प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेश करि रहित भई है मोहनीय कर्म की प्रकृति जाकै; सो निःशेप क्षीणकषाय है । जैसें निःशेष मोह प्रकृतिनि का सत्त्व करि रहित जीव, सो क्षीण कपाय है । ता कारण ते स्फटिक का भाजन विषै तिष्ठता जल सदृश प्रसन्न - सर्वथा निर्मल है चित्त जाका ग्रैसा क्षीणकषाय जीव है, से वीतराग सर्वजदेवनि करि कहिए है । सोई परमार्थ करि निर्ग्रन्थ है । उपशांत कषाय भी यथाख्यात चारित्र की समानता करि निर्ग्रन्थ है, जैसे जिनवचन विषं प्रतिपादन करिए है ।
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भावार्थ उपशांत कपाय के तौ मोह के उदय का अभाव है, सत्त्व विद्यमान है । बहुरि क्षीणकपाय के उदय, सत्त्व सर्वथा नप्ट भए हैं; परन्तु दोऊनि के परिणामनि विषे कपायनि का अभाव है । ताते दोऊनि के यथाख्यात चारित्र
समान है । तीहिकरि दोऊ वाह्य, अभ्यंतर परिग्रह रहित निर्ग्रन्थ कहे है । आगे सयोग केवलिगुणस्थान की गाथा दोय करि कहै है केवलरणारगदिवायरकिररणकलावप्परणासियण्णागो । रणवकेबललधुग्गमसुजरिगयपरमप्पववएसो ॥ ६३॥२
१. पट्टनम - घवला पुन्तर १, पृष्ठ १६१, गाथा १२३ २. पा - घटना दुक १, पृष्ठ १९२, गाया १२४