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आत्म-निवेदन
बचपन मे अपने पुत्र-पुत्रियो की शरारतो से भरी तोतली वाणी तथा बाल्यकालोचित लीलाएं हमारी साहित्यिक यात्रा मे रग-बिरंगे, हरे-भरे उपवनो की सी ताजगी प्रदान करती रही हैं। मौलिक चिन्तनशीलता, साधनहीनो के प्रति दयालुता तथा श्रमण-सस्कृति के प्रति सहज श्रद्धाभक्ति के सस्कार और पारिवारिक आर्थिक विपन्नता के प्रति सहज सवेदनशीलता की भावना भी उनमे प्रारम्भ से ही बनी। उनके सुसस्कारो तथा नियमित अध्ययन एव कठोर परिश्रम, स्वतन्त्र-चिन्तन तथा ज्ञान-पिपासा की शान्ति हेतु उनका अपना अध्यवसाय एव प्रगति की अदम्य लालसा ने हमे विविध विपन्नताओ के बीच भी थकान का अनुभव नहीं होने दिया।
उन्हे दिल्ली एव इलाहावाद जैसे महंगे शहरो मे उच्चशिक्षा दिलाने का दुस्साहस हमने किया। लगभग आठ-नौ वर्षों तक उनके अध्ययन की व्यवस्था किन-किन कठिनाइयो के बीच की गई इसके अनेक रोचक एव प्रेरक सस्मरण हैं। किन्तु उनका उतना महत्त्व नही, जितना इसका कि उन्होने हमसे छिपाकर अपनी मासिक पत्तियो मे से कटौती की और उसे उसी अदृश्य सत्कार्य मे सदुपयोग करने का सकल्प किया। प्रस्तुत लघु पुस्तिका का प्रकाशन उसी का सुपरिणाम है। जैन-परिवारो के उन्ननीषु छात्रो के लिए यदि इस उदाहरण से कुछ प्रेरणा मिल सके, तो उससे समाज एव साहित्य का काफी काम हो सकता है।
अपने बच्चो के अनुरोधो को हमने कभी टाला नही। उसी क्रम मे कुन्दकुन्द पर एक लघु-पुस्तिका लिखने सम्बन्धी उनके अनुरोध को भी हमने टाला नही और हम लोगो ने अल्पकाल मे भी, जो जितना सम्भव था, उसे लिखकर एक ओर अपने बच्चो का मनोवल भी बढाने का प्रयत्न किया है, तो दूसरी ओर भारतीय संस्कृति-सागर के मन्थन के लिए