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(vi) 1988-89 को आचार्य कुन्दकुन्द की द्विसहस्राब्दि-समारोह-वर्प के रूप मे मनाने की प्रेरणा दी।
साथ ही, 16 अक्टूबर 1988 को दिल्ली के फिक्की सभागार में समाज के अग्रणी नेता आदरणीय साहू श्रेयासप्रसाद जी, साहू अशोक कुमार जी, साहू रमेशचन्द्र जी, श्री रमेशचन्द्र जी (PSJ), श्री अक्षय कुमार जी, श्री रतनलाल जी गगवाल, श्री बाबूलाल जी पाटोदी, सतीश जी प्रभृति ने समाज को दिशादान देने हेतु कुन्दकुन्द द्विसहस्राब्दि-समोराह वर्ष के उद्घाटन का विराट आयोजन किया, जिसमे उपराष्ट्रपति माननीय डॉ० शकरदयाल शर्मा एव अन्य गण्यमान विद्वानो के विचारोत्तेजक भाषण हुए । उन विचारो ने हमे अत्यधिक प्रभार्वित किया।
निरपेक्षवृत्ति से साहित्य-साधना मे सलग्न अपने मम्मी-पापा से हम लोगो ने निवेदन किया कि कुन्दकुन्द पर वे एक ऐसी पुस्तिका लिख दें, जिसमे कुन्दकुन्द के बहुमुखी व्यक्तित्व की झांकी हो तथा जो इस भ्रम को दूर कर मके कि 'कुन्दकुन्द जनेतरो के लिए नही, वे तो केवल जैनियो के ही आचार्य हैं तथा उनका साहित्य केवल जैन-मन्दिरो मे ही रखने योग्य है।'
हमारी दृष्टि मे तो कुन्दकुन्द सभी के कल्याणमित्र हैं। वे प्राणीमात्र के परमहितपी हैं। वे राष्ट्रीय ही नही, बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के महान् विचारक, दार्शनिक, सन्त, योगी-साधक, लेखक एव पथ-प्रदर्शक है । उन्हे जाति एव सम्प्रदाय के घेरे मे वन्द रखना, उनके तेजस्वी व्यक्तित्व की अवमानना होगी। इस पुस्तक का लेखन भी उक्त विचारो के आलोक में ही किया गया है। बहुत सम्भव है कि विद्वज्जनो के लिए यह पुस्तक सामान्य लगे, किन्तु सामान्य-जनता के लिए यह पुस्तक उपयोगी सिद्ध होगी, ऐमा हमारा परम विश्वास है।
यह हार्दिक प्रसन्नता का विषय है कि हमारे अध्ययन-काल मे सन् 1980-81 से हमारे मम्मी-पापा ने जो मासिक वृत्तियां हमारे लिए बांध रखी थी, उसमे से क्रमश बचत की राशि से इस पुस्तिका का प्रकाशन हो रहा है। ___ आरा जैसी साधन विहीन भूमि मे, जहां विजली एव पानी की निरन्तर अस्थिरता बनी रहती है, वहां मोमबत्ती के प्रकाश में इस पुस्तक का