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________________ आचार्य कुन्दकुन्द | 111 -जिस प्रकार सुपुत्र के विना विपुल धन और बडे-बडे खेतो का होना व्यर्थ है, तथा अच्छे पान के विना दान देना निरर्थक है उसी प्रकार भावो के विना व्रत, गुण और चारित्र का पालन भी निष्फल है। हिंसक स्वभाव वाले धर्म-नाशक है38 वाणर-गद्दह-साण-गय-वग्घ-वराह-कराह। पक्खि-जलूय-सहाव णर जिणवरधम्म-विणासु // (रयण 42) -जो मनुष्य वन्दर, गधा, कुत्ता, हाथी, बाघ, सुअर, कछुवा और पक्षी तथा जोक के स्वभाव वाले होते हैं, वे जिनेन्द्रदेव के धर्म का विनाश करते हैं। गुरु-भक्ति के बिना लक्ष्य-प्राप्ति असम्भव39 रज्ज पहाणहीण पदिहीण देसगामरट्ठ वल / गुरुभत्तिहीण-सिस्साणुट्ठाण णस्सदे सव्व / / (रयण० 72) -जैसे राजा के विना राज्य और सेनापति के विना देश, ग्राम, राष्ट्र, सैन्य सुरक्षित नही रह पाते, वैसे ही गुरु की भक्ति के बिना शिष्यो के अनुष्ठान सफल नहीं होते। श्रमणो के लिए दूषण40 जोइसवेज्जामतोवजीवण वायवस्स ववहार। धणधण्णपडिग्गहण समणाण दूसण होइ॥ (रयण० 96) -ज्योतिष-विद्या और मन्त्र-विद्या द्वारा आजीविका चलाना तथा भूत-प्रेत का प्रदर्शन कर धन-धान्यादि लेना ये सभी श्रमणो के लिए दूषण कहे गये हैं।
SR No.010070
Book TitleKundakundadeva Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Vidyavati Jain
PublisherPrachya Bharti Prakashan
Publication Year1989
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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