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________________ 98 /माचार्य कुन्दकुन्द अण्णाणमया भावा अणाणिणो बहुविहा वि जायते। णाणिस्स दु णाणमया सन्वे भावा तहा होति । (समयसार 130, 131) -जिस प्रकारस्वर्णमय भाव से कुण्डल आदि भाव उत्पन्न होते हैं तथा लोहमय भाव से कडा आदि भाव उत्पन्न होते हैं, इसी प्रकार अज्ञानी के अनेक प्रकार के अज्ञानमय भाव उत्पन्न होते हैं तथा ज्ञानी के समस्त ज्ञानमय भाव होते हैं। शुभ एवं अशुभदोनो ही भाव वन्ध के कारण है34 सोवण्णिय पि णियल वधदि कालायस पि जह पुरिस। बधदि एव जीव सुहमसुह वा कद कम्म॥ (समयसार 146) -जिस प्रकार सोने की बेडीभी पुरुष को बांधती है और लोहे की वेडी भी बांधती है, उसी प्रकार शुभ-अशुभ किया हुआ कर्म भी जीव को वांधता है अर्थात् शुभ एव अशुभ दोनो ही बन्ध के कारण हैं। राग ही बन्ध का मूल कारण35 रत्तो वधदि कम्म मुचदि जीवो विरागसपण्णो। एसो जिणोवदेशो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज ॥ (समयसार 150) -रागी जीव कर्मों को बांधता है और विरागी जीव कर्मों से छूटता है ऐसा जिनेन्द्र का उपदेश है । इसलिए हे भव्य, तू कर्मों मे राग मत कर । ___आत्मा का पुद्गलो क साथ कोई सम्बन्ध नहीं36 जह को वि णरो जपदि अम्हाण गामविसयणयररट्ठ। ण य होति ताणि तस्स दू भणदि य मोहेण सो अप्पा ।। (समयसार 325)
SR No.010070
Book TitleKundakundadeva Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Vidyavati Jain
PublisherPrachya Bharti Prakashan
Publication Year1989
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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