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________________ ६४ आचार्य कुंदकुंददेव इतना ही नहीं, अहिंसादि पाँच महाव्रत, ईर्यादि पाँच समिति, पंचेन्द्रियनिग्रह, केशलोंच, षडावश्यक क्रिया, नग्नता, अस्नान, भूमिशयन, अदन्तधावन, खड़े होकर आहार लेना, दिन में एकबार भोजन इन अट्ठाईस मूलगुणों का निर्दोष पालन भी मुनीश्वरों के जीवन में अनिवार्य रूप से होता ही है। इन अट्ठाईस मूलगुणों के अतिरिक्त साधुओं को उत्तरगुणों का अनशनादि बाह्याभ्यंतर तपों का भी पालन दृढ़ता पूर्वक करना चाहिए। इस प्रकार का भ्रमणधर्म जिनेन्द्र भगवान ने कहा है, ऐसा उपदेश पद्मनंदि मुनि महाराज साधु और श्रावकों को देते थे। महाहिंसक पशुओं के निवास स्थान गिरि-कन्दराओं में, भयानक श्मशान भूमि में ध्यान लगाते थे । और शीत, उष्ण, क्षुधा, तृषा आदि बाईस परीषहों पर विजय प्राप्त करते थे । मुख्यरूप से तो अपने चिदानन्दघन शुद्धात्मस्वरूप में निमग्न रहते हुए अनुपम आनन्द का अनुभव करते थे । साधु की षडावश्यक क्रियाओं में सहज प्रवृत्ति रहते हुए भी आत्मस्थिरता द्वारा वीतरागता बढ़े,इस भावना से निर्बाध स्थान में एकांत में विशेष आत्मसाधना करके अपूर्व समता-रस का पान करते थे । और उनके अमृतमय वचनों से जिज्ञासु धर्म-लोभी याचकजन भी लाभान्वित होते थे। । साधु जब गुप्तिरूप विशेष -धर्म-कार्य में संलग्न नहीं होते तब सावधानीपूर्वक समिति में प्रवृत्ति करते हैं । समिति में सावधान रहते हुए भी बाह्य में किसी जीव का घात हो जाय तो भी प्रमाद के अभाव से हिंसक नहीं माना जाता । मात्र द्रव्य हिंसा हिंसा नहीं है । परन्तु असावधान पूर्वक प्रवृत्ति अर्थात् जीवन प्रमादसहित बनने से रागादि
SR No.010069
Book TitleKundakundadeva Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
PublisherDigambar Jain Trust
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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