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________________ आचार्य कुंदकुंददेव ६५ विकारी परिणामों के सद्भाव से प्राणों का घात नहीं होने पर भी प्रमादी जीव हिसंक - विराधक सिद्ध होते हैं । शुद्धात्मसाधना में सावधान साधक रागादि विकारों से रंजित नहीं होते । पानी में डूबे कमल की तरह साधक कर्मबन्धनों से निर्लिप्त रहता हैं । शुद्धोपयोग- शुद्धपरिणतिरूप वीतराग परिणामस्वरूप अहिंसा से साधक का जीवन अलौकिक होता है। इस प्रकार धर्म का वास्तविक स्वरूप समझकर मुनिजन अलौकिक आनन्द के साथ जीवन-यापन करते हैं । केवल कठोर व्रताचरण और कायक्लेश से धर्म नहीं होता । धार्मिक मनुष्य के जीवन में कठोर व्रताचरण और कायक्लेश पाये जाते हैं, यह बात सत्य है । वे धर्म के मात्र बाह्यांग हैं। अंतरंग में त्रिकाली शुद्ध स्वभावी ज्ञायक आत्मा का आश्रय करने से सम्यग्दर्शन- ज्ञान चारित्ररूप वास्तविक धर्म होता है। अन्तरंग धर्म के साथ बाहय व्रतादिरूप धर्म ही ज्ञानियों को मान्य रहता है । परपदार्थविषयक रागद्वेष के कारण नित्य सुखस्वभावी आत्मा सतत दुःखी हो रहा है। दुर्लभ मानव पर्याय प्राप्त करके भी परमात्मा, (सुखी आत्मा) बनने के उपाय का अवलम्बन न करने से जीवन व्यर्थ जा रहा है। अनमोल जीवन काँडी मोल का बन रहा है। जो परमात्मस्वरूपी अपने आत्मा की उपासना-आराधना करता है, उसका जीवन सार्थक है, धन्य है ! दीक्षाग्रहण के बाद अखण्डरूप से तैंतीस वर्षो तक निज स्वभाव की साधना में निरत मुनिराज पद्मनंदि ने स्वानुभव प्रत्यक्ष से उत्पन्न सच्चे सुख को भोगते हुए दक्षिण और उत्तर भारत में मंगल विहार
SR No.010069
Book TitleKundakundadeva Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
PublisherDigambar Jain Trust
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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