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________________ -- - - - - आचार्य कुंदकुंददेव अरहंत-सिद्ध और आचार्य, उपाध्याय, साधु इनमें अंतर मात्र पूर्णता और अपूर्णता की अपेक्षा है । अरहंत-सिद्ध परमेष्ठी स्वशुद्धात्मा का अवलंबन पूर्णरूप से लेते हैं और आचार्य, उपाध्याय, साधु आंशिकरूप से लेते हैं, परन्तु लेते हैं सभी मात्र शुद्धात्मा का ही अवलम्बन | ध्यान के लिए ध्येयरूप से बना हुआ स्वशुद्धात्मा प्रत्येक का भिन्न-भिन्न होने पर भी शुद्धात्मा के स्वरूप में किंचित् मात्र भी अन्तर नहीं । एवं पंच परमेष्ठी को प्राप्त होनेवाला वीतरागमय आनंददायक स्वाद भी सभी को एक ही जाति का मिलता है। भले ही भूमिकानुसार स्वाद की मात्रा में अंतर हो। पंचपरमेष्ठियों में तीन परमेष्ठी रूप (आचार्य, उपाध्याय, साधु) मुनिधर्म शुद्धोपयोगमय है । शुद्धोपयोग में स्वशुद्धात्मा के शुद्ध स्वरूप का अनुभव होता है । यह अनुभव आनंदमय है और यही धर्म है। शुद्धोपयोग मुनिराज को करना पड़ता है, ऐसा नहीं है, क्योंकि जैसे श्वासोच्छ्वास मनुष्यशरीर का स्वाभाविक कार्य है वैसे ही मुनि जीवन में शुद्धोपयोग स्वाभाविक रूप से होता है । संक्षेप में कहें तो शुद्धोपयोग, शुद्धपरिणति, वीतरागता, समताभाव, संवर-निर्जरारुप सुखमय परिणाम, आंशिक मोक्ष का नाम ही मुनिधर्म है। मुनिधर्म में अमुक अमुक क्रियायें एवम् व्रतादि करना चाहिए ऐसा कथन व्यवहारनय से शास्त्रों में आता है, तथापि कोई भी धार्मिक क्रियायें हठपूर्वक करना मुनिधर्म में स्वीकृत नहीं । जो आत्मा की सतत साधना-आराधना एवम् आश्रय करता है, वही साधु है। ऐसा वह आत्मसाधक निर्विघ्न आत्म-साधना के लिए वन-जंगल में ही वास करता है।
SR No.010069
Book TitleKundakundadeva Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
PublisherDigambar Jain Trust
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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