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________________ आचार्य कुंदकुंददेव दीक्षार्थी अनेक ग्राम नगर, वन-उपवनों को लांघकर भ्रमण करता हुआ दक्षिण दिशा के नीलगिरि-पर्वत पर पहुँच गया। वहाँ विराजमान मुनिराज' से यथाजातरूप दिगम्बर जैन साधु की दीक्षा धारण की। दीक्षा के बाद गुरु ने उनके घर के पद्मप्रभ नाम को ही थोड़ा बदलकर उन्हें 'पद्मनंदि' यह नाम दिया । उस दिन से ही पद्मप्रभ पद्मनंदि नाम से प्रसिद्ध हुए। मुनि पदमनंदि दिगम्बर जैन साधु ने असंख्यात तीर्थकर तथा अनंत महामुनीश्वरों द्वारा प्रतिपादित सनातन, यथार्थ धर्ममार्ग को स्वीकार किया। एक मात्र स्वात्मकल्याण ही जीवन का सर्वस्व बनाया था । मात्र आत्महित के लिए ही स्वीकृत दीक्षा को अंतर्बाह्य दृष्टि से यथासंभव निर्मल, उदात्त, यथार्थ और सर्वोत्कृष्ट बनाने के लिए ही वे केवल मनन-चितंन ही नहीं करते अपितु प्रत्यक्ष में अपूर्व पुरुषार्थ भी करते थे। बाल्यावस्था में यथाजातरूप मुनि धर्म धारण करके पदमनंदि मुनि महाराज अपने गुरू के आदेशानुसार कुछ मुनिजनों के साथ सर्वत्र विहार करते थे । अनेक राजा, महाराजा, राजकुमार, राजश्रेष्ठी, श्रावक-श्राविका और वृद्ध मुनि महाराज भी उनका सदा सहृदय सन्मान करते थे । परन्तु पद्मनंदि मुनिराज का किसी पर राग-द्वेष नहीं था । वे तो समदर्शी महाश्रमण बन चुके थे। सिद्ध परमेष्ठी अनंत सुखादि सम्पन्न सर्वोत्कृष्ट भगवान हैं। वे संसारी जीवों के लिए साध्यरूप आत्मा हैं । आचार्य, उपाध्याय और साधु परमेष्ठी सर्वोत्तम पूर्ण सुख पद के (सिद्ध दशा के) साधक हैं। १. ई. स. पूर्व ६७. दीक्षादायक गुरू का कोई निश्चित नाम नहीं मिलता ।
SR No.010069
Book TitleKundakundadeva Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
PublisherDigambar Jain Trust
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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