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________________ आचार्य कुंदकुंददेव -इस प्रकार गद्गद् कण्ठ से कहती हुई माँ शान्तलादेवी मोहवश बरबस रो पड़ी। " बस करो माँ ! अब छोड़ दो । मोह की वशवर्तिनी बनकर अपनी उदात्तता छोड़ना अच्छा नहीं लगता; शोभादायक भी नहीं लगता आप दोनों ने ही तो मुझे वस्तुस्वरूप का और शुद्धात्मस्वरूप का यथार्थ ज्ञान देकर महान उपकार किया है; उसको मैं जीवनपर्यंत नहीं भूलूँगा।" “ठीक है पुत्र ! जाओ तुम्हारा कल्याण हो।" "पूज्य माताजी-पिताजी मैं नमस्कार करता हूँ | आशीर्वाद दीजिए।" “शुद्धात्मस्वभाव के अनुभव द्वारा कर्मों को जीतकर भव से रहित हो जाना | जब तक सूर्य-चन्द्रमा रहेंगे तब तक विश्व तुम्हारा स्मरण करता रहे।" इस प्रकार दोनों ने हृदय के अंतस्थल से अपने हृदय के टुकड़े प्रिय पुत्र पदमप्रभ को बिदा देते समय अन्तिम हार्दिक आशीर्वाद दिया।" उस वैराग्यसंपन्न बालक ने वहाँ से दिगम्बर दीक्षा लेने हेतु प्रस्थान किया। सेठ गुणकीर्ति और माता शान्तलादेवी-दोनों न जाने कितने समय तक वहीं अचल अबोल खड़े रहे; पद्मप्रभ की पीठ को अश्रुपूरित नेत्रों से देखते रहे । ___ सुकोमल शरीरधारी वैश्यपुत्र ने अभी ग्यारह वर्ष भी पूरे नहीं किये थे; परन्तु बाल्यावस्था में ही आत्मा की अंतर्ध्वनि सुनकर संसारोत्पादक तीन शल्यों से रहित होकर और माता-पिता के करुण क्रंदन से भी विचलित न होकर, घर छोड़कर वह चल दिया। वह
SR No.010069
Book TitleKundakundadeva Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
PublisherDigambar Jain Trust
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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