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________________ आचार्य कुंदकुंददेव १३७ भावहिंसा :- आत्मा में मिथ्यात्व, राग-द्वेष, क्रोध-मान माया-लोभादि विकारी भावों का उत्पन्न होना । मिथ्यात्व :-निजशुद्धात्मतत्व के ऊपर श्रद्धा न होने से शरीर, धन, पुत्र स्त्री इत्यादि में अहंकार-ममकार बुद्धि के साथ होनेवाली श्रद्धा गुण की अवस्था, अतत्वश्रद्धान, कुदेवादि का श्रद्धान, वस्तुस्वरूपविषयक विपरीत मान्यता । __ मोक्ष :-बंध हेतु के अभाव और निर्जरा से समस्त कर्मों का आत्यंतिक क्षय, अतीन्द्रिय, विषयातीत, उपचार रहित, स्वाभाविक, विच्छेद रहित, पारमार्थिक सुख, चौथा पुरुषार्थ ।। योग्यता:-कार्य उत्पन्न करने की कारण की शक्ति, कारण से उत्पन्न होने की कार्य की शक्ति । द्रव्य के परिणमन में द्रव्य की योग्यता ही कारण है। श्रमण :- शत्रु-मित्र, सुख-दुख, निंदाप्रशंसा, मिट्टी और सोना, जीवन मरणादि में समता स्वभावी अपरिग्रही निरारंभी अनंत ज्ञानादिस्वरूप शुद्धात्मा का साधक, ध्यानमग्न साधु । श्रावक:-विवेकवान, विरक्तिचित्त, अणुवर्ती गृहस्थ, पंचपरमेष्ठी का भक्त, भेदज्ञानरूपी अमृत का पिपासु श्रावक के मूलगुण तथा उत्तरगुणों का पालन करनेवाला। शुद्धात्मा :-मिथ्यात्व, रागादि भावों से रहित होने के कारण प्रत्येक आत्मा स्वभाव से शुद्ध ही है, इसके ही शुद्धात्मा, निजपरमात्मा, भगवान आत्मा, ज्ञायक इत्यादि नाम हैं। शुद्धोपयोग:-इष्टानिष्ट बुद्धि से रहित होकर ज्ञानानंदस्वभावी निज परमात्मा में उपयोग-ज्ञान को संलग्न करना. जीवन-कारणादि ।
SR No.010069
Book TitleKundakundadeva Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
PublisherDigambar Jain Trust
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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