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आचार्य कुंदकुंददेव में इष्टानिष्ट वस्तुओं में समता भाव रखना ही शुद्धापयोग हैं। स्वशुद्धात्मा का बुद्धिपूर्वक संवेदन, समाधि, साम्य, समता, वीतरागता, योग, चित्त-निरोध, शुद्धोपयोग-ये सभी शब्द एकार्थवाची
शुद्धपरिणति :- शुद्धापयोग से उत्पन्न वीतरागता, समता, पवित्रता, अथवा शुद्धि । शुभाशुभ उपयोग के समय भी शुद्ध परिणति अखण्ड रहती है।
शुभोपयोग :- मन-वचन-कार्यपूर्वक देव-शास्त्र-शुरू की पूजा, भक्ति, पात्रदान, तीर्थयात्रा इत्यादि बुद्धिपूर्वक पुण्यमय परिणाम ।
सम्यग्दर्शन-सम्यत्ताव :- यथार्थ देव-शास्त्र-गुरू का श्रद्धान, जीयादि सप्त तत्वों का श्रद्धान, स्वशुद्धात्मा ही उपादेय है -ऐसा श्रद्धान।
सिद्ध:-आठ कर्मों से रहित, आत गुणों से सहित, अत्यन्त शांतिमय, कृतकृत्य बनकर लोकान में अनंतकाल पर्यंत रहनेवाले ज्ञानशरीरी आत्मा ।
स्वभाव :-अंतरंग कारण, वस्तु का स्वभाव वस्तुगत गुणों से सम्बंधित रहता है, बाहय परिस्थिति से नहीं। वस्तु का स्वरूप ही वस्तु का स्वाभाव है। जैसे पानी की शीतलता।
विमाव :-स्वभाव से विपरीत परिणमन, जैसे पानी की उष्णताकर्मोदय के निमिन से उत्पन्न जीव के क्रोधादि भाव ।
विदेहक्षेत्र :-भरतादि ७ क्षेत्र हैं उनमें एक विदेहक्षेत्र क्षेत्र है। जहाँ वीतराग जैनधर्म अखण्ड रूप से रहता है । ओर विदेही जिन अर्थात तीर्थकर हमेशा रहते हैं।