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________________ आचार्य कुंदकुंददेव द्रव्यहिंसा :- पृथ्वीकायिक पांच एकेन्द्रिय-स्थावर जीवों का द्वीन्द्रियादि त्रस जीवों का घात । दिव्यध्वनि :- केवलज्ञान प्राप्ति के पश्चात अरहन्त भगवान सर्वांग से एक अनुपम ओंकार ध्वनि निकलती है। भगवान की इच्छा न होने पर भी भव्य जीवों के भाग्य से दिव्यध्वनि सहज खिरती है। देशविरत :- संयम धारण करने के अभ्यास की अवस्था में स्थित संयम तथा असंयम परिणामों से सहित श्रावक, संयतासंयत विरताविरत, देशव्रती, अणुव्रती भी कहते हैं। धर्म :- जीवों को संसार दुःखों से निकालकर उत्तम - अविनाशी सुख में विराजमान करनेवाली जीव की परिणति । चतुर्गति के दुःखों से जीवों की रक्षा करनेवाली दयामय रत्नत्रयात्मक परिणति / १३६ निर्जरा :- जीव के साथ एक क्षेत्रावगाह संबंध वाले पूर्वबद्ध कर्मों का आत्मगत शुद्धि के बल से झड़ जाना | पर्याय :- द्रव्य का अंश अर्थात् गुण का प्रति समय होनेवाला परिणमन ! प्रमत्त- संयत :-पन्द्रह प्रमादों से सहित छठवाँ गुणस्थान, आहार लेना, पिछी-कमंडलु-शास्त्र का उठाना रखना, शास्त्र लिखना, उपदेश देना, विहारादि क्रिया-ये सब प्रमत्तसंयत अवस्था में ही होते हैं । परिषहजय :- मोक्षमार्ग से च्युति न हो और कर्मों की निर्जरा हो, इसलिए क्षुधादि कष्ट सहना, परीषहों का ज्ञान ही न होना अर्थात् आत्मानंद का रसास्वाद करते रहना ही परीषहजय है ।
SR No.010069
Book TitleKundakundadeva Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
PublisherDigambar Jain Trust
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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