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________________ नियमसार ] [67 "अयणमयं पडिकमरणं वयणमयं पच्चखारण रिणयमं च / मालोयरण बयणमयं तं सव्वं जारण सज्झायं / / जदि सक्कदि कावं जे पडिकमणादि करेज्ज झारणमयं। सत्तिविहीणो ना जइ सद्दहणं चेव फायग्छ / ' वचनमय प्रतिक्रमण, वचनमय प्रत्याख्यान, वचनमय नियम और वचनमय आलोचना - इन सबको स्वाध्याय जानो। अहो ! यदि किया जा सके तो ध्यानमय प्रतिक्रमणादि करो, यदि शक्तिविहीन होने से ध्यानमय प्रतिक्रमणादि न कर सको तो तब तक श्रद्धान हो कर्तव्य है।" यद्यपि मोहाछन्न दुखी जगत को देख करुणावंत प्राचार्य भगवन्त श्री कुन्दकुन्दाचार्य समयसार जैसें ग्रन्थाघिराजों की रचना करते हैं, करुणा से विगलित हो उपदेश देते हैं, आदेश देते हैं, विविध युक्तियों एवं उदाहरणों से वस्तुस्वरूप समझाते हैं; तथापि अन्तर में भलीभांति जानते हैं कि इसप्रकार के विकल्पों में उलझना आत्महित की दृष्टि से हितकर नहीं है, उचित नहीं है / अतः स्वयं को सम्बोधित करते हुए अथवा दूसरों को समझाने के विकल्प में उलझे अन्तेवासियों (निकटवर्ती शिष्यों) को समझाते हुए कहते हैं : "रणारणाजीवा गाणाफम्मं गाणाविहं हवे लखी। तम्हा वयणविवाद सगपरसमएहिं धज्मिज्जो॥ लखणं रिणहि एक्को तस्स फलं अणुहवेह सुजरगत्ते / तह गाणी गारपरिणहि भुंजेइ चइत्तु परितत्ति // जीव नानाप्रकार के हैं, कर्म नानाप्रकार के हैं और लब्धियां भी नानाप्रकार की हैं; अतः स्वमत और परमतवालों के साथ वचन विवाद उचित नहीं है, निषेध योग्य है / जिसप्रकार कोई व्यक्ति निधि को पाकर अपने वतन में गुप्तरूप से रहकर उसके फल को भोगता है, उसीप्रकार ज्ञानी भी परिजनों से दूर रह - गुप्त रह ज्ञाननिधि को भोगता है।" 1 नियमसार, गाथा 153-154 2 नियमसार, गाथा 156-157
SR No.010068
Book TitleKundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1988
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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