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________________ 66 ] [ आचार्य कुन्दकुन्द और उनके पंच परमागम अन्त में निर्वाण अर्थात् सिद्धदशा का वर्णन किया गया है / दूसरी गाथा में मार्ग और मार्गफल की जो बात प्रारम्भ की थी, एक सौ पिच्यासीवी गाथा में उस कथन को दुहराते हुए उपसंहार किया गया है। अन्त में एक महत्त्वपूर्ण चेतावनी दी गई है, जो उन्हीं के शब्दों में इसप्रकार है : "ईसाभावेण पुरणो केई रिगति सुन्दरं मग्गं। तेसि वयणं सोच्चाऽभत्ति मा कुरणह जिरणमग्गे // ' यदि कोई ईर्ष्याभाव से इस सुन्दर मार्ग की निन्दा करें तो उनके वचन सुनकर इस जिनमार्ग में अभक्ति मत करना।" इसप्रकार हम देखते हैं कि सम्पूर्ण नियमसार में एक ही ध्वनि है कि परमपारिणामिक भावरूप निजशुद्धात्मा की आराधना में ही समस्त धर्म समाहित हैं। इसके अतिरिक्त जो भी शुभाशुभ विकल्प एवं शुभाशुभ क्रियाएँ हैं, उन्हें धर्म कहना मात्र उपचार है। अतः प्रत्येक आत्मार्थी का एकमात्र कर्तव्य इन उपचरित धर्मों से विरत हो एकमात्र निजशुद्धात्मतत्त्व की आराधना में निरत होना ही है / निजशुद्धात्मतत्त्व का ज्ञान, श्रद्धान एवं आचरण (लीनता) ही निश्चयरत्नत्रय है, नियम है। प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, मालोचना, प्रायश्चित्त, परमसमाधि, परमभक्ति, परमावश्यक आदि इसी के विशेष हैं, अतः इसी में समाहित हैं / आचार्यदेव स्वयं कहते हैं कि वचनरूप प्रतिक्रमणादि तो स्वाध्याय हैं, ध्यान नहीं; अतः ग्राह्य नहीं। ध्यानरूप निश्चय प्रतिक्रमणादि ही करने योग्य हैं / यदि शक्तिहीनता के कारण ध्यानरूप निश्चयप्रतिक्रमणादि सम्भव न हो तो श्रद्धानरूप प्रतिक्रमण करना / तात्पर्य यह है कि श्रद्धा में ऐसा स्वीकार करना कि वास्तविक प्रतिक्रमणादि तो आत्मा के ध्यानरूप ही हैं, वचनादिरूप नहीं हैं; अर्थात् श्रद्धेय, ध्येय, आराध्य तो एक प्रात्मा ही है / तत्सम्बन्धी मूल कथन इसप्रकार है : 1 नियमसार, गाथा 186
SR No.010068
Book TitleKundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1988
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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