________________ नियमसार ] [ 65 जो भवभय के हरनेवाले इस सम्यक्त्व, शुद्धज्ञान एवं चारित्र की भवछेदक अतुल भक्ति निरन्तर करता है, वह काम-क्रोधादि समस्त दुष्ट पापसमूह से मुक्त चित्तवाला जीव- चाहे श्रावक हो या संयमी हो- निरन्तर भक्त है, भक्त है।" इसके बाद एक सौ इकतालीसवीं गाथा से निश्चयपरमावश्यक अधिकार प्रारम्भ होता है, जो एक सौ अदावनवीं गाथा तक चलता है। एक सौ बियालीसवीं गाथा में आचार्य ने आवश्यक का जो व्युत्पत्त्यर्थ बताया है, वह अपने आप में अद्भुत एवं द्रष्टव्य है : "ण वसो अवसो अवसस्स कम्म वावस्सयं ति बोद्धव्वा / जो अन्य के वश नहीं है, वह 'अवश' है और अवश का कर्म 'पावश्यक' है- ऐसा जानना चाहिये / " ___ अन्यवश का विस्तृत स्पष्टीकरण आगे की अनेक गाथाओं में किया गया है, जिनमें बताया गया है कि शुभाशुभभाव में रहनेवाला व द्रव्य-गुण-पर्याय के चिन्तन में मग्न प्रात्मा अन्यवश है, आत्मस्वरूप में संलग्न प्रात्मा ही स्ववश है / इस सन्दर्भ में निम्नांकित कलश दृष्टव्य है :"अन्यवशः संसारी मुनिषेषधरोपि दुःखभाऊनित्यम् / स्ववशो जीवन्मुक्तः किचिन्न्यूनो जिनेश्वरादेषः॥' जो जीव अन्यवश है, वह भले ही मुनिवेषधारी हो, तथापि संसारी है, नित्य दुख भोगनेवाला है। जो जीव स्ववश है; वह जीवन्मुक्त है, जिनेश्वर से किंचित् ही न्यून है।" __इसके बाद एक सौ उनसठवीं गाथा से शुद्धोपयोगाधिकार प्रारम्भ होता है, जो अन्तिम अधिकार है और अन्त तक अर्थात् एक सौ सत्यासीवीं गाथा तक चलता है। वह प्रसिद्ध गाथा, जिसमें केवली भगवान पर को व्यवहार से जानते हैं और निश्चय से स्व को - यह बताया गया है, इस अधिकार की पहली ही गाथा है। मागे चलकर आत्मा के स्व-परप्रकाशक स्वरूप का युक्तिसंगत विस्तृत स्पष्टीकरण किया गया है। ' तात्पर्पवत्ति, छन्द 243